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अरिहंत का नाम
गुरुवाणी-३ तक भी नहीं रह पाते हैं। एक भाई मेरे पास आए.... दादा की हर पूनम को यात्रा करता है। लाखों रूपये धर्म में खर्च भी करता है, किन्तु वर्षों से पति-पत्नी के बीच में बोलचाल नहीं है। दोनों साथ रहते हैं, किन्तु बोलते नहीं है। उनके जीवन में तनिक भी उमंग या उत्साह नहीं है। उनके जीवन में कैसी गांठे पड़ गई होंगी इनको धर्म छू गया है, कैसे कह सकते हैं? दो पुत्रों को अपनी सम्पत्ति का बंटवारा कर दिया। इसमें किसी को कुछ कम-ज्यादा हुआ तो, ऐसी स्थिति में तत्काल ही माँ-बाप पर अप्रीति पैदा हो गई। माँ-बाप बेकार हैं ! अरे भाई, तुझे छोटे से हाथी जैसा बड़ा किसने बनाया? माता ने ही तुझे बोलना सिखाया, खाना-पीना सिखाया, तेरे मल-मूत्र को साफ किया, इन उपकारों को क्या तू भूल गया। एक चीज तुझे कम मिली इसलिए क्या माँ-बाप बेकार हो गये। इनके उपकारों की तुलना तो कर। हमारे सम्बन्धों में केवल स्वार्थ की दुर्गन्ध ही भभक रही है। तीर्थंकर परमात्मा तो मानवता से ही बनते हैं। उन्होंने तो धर्म नाम की कोई चीज सुनी भी नहीं है। केवल परोपकार का लक्ष्य ही उनके जीवन में होता है। दीन-दु:खी को देखते ही दौड़ते हैं। आज तो दीन-दु:खी को देखकर हम मुहँ फेर लेते हैं। व्यापार बढ़ाओ और धन कमाओ।' इस सूत्र को ही हम आज लेकर बैठे हैं। उसके स्थान पर 'विचारों को सुधारो और पुण्य को बढ़ाओ' इसको ग्रहण करने की आवश्यकता है।
जगत् में सभी प्रकार के पुद्गल चारों तरफ फैले हुए हैं। अच्छे और बुरे। जैसे ठण्ड की ऋतु में ठण्ड के पुद्गल समस्त वातावरण में फैल जाते हैं और गर्मी में गर्मी के पुद्गल चारों तरफ फैल जाते हैं। कश्मीर यहां से चाहे जितना योजन दूर हो यदि वहाँ हिमवर्षा होती है, तो उसके परमाणु यहाँ तक पहुँच आते हैं। उस कारण से गर्मी की ऋतु में भी अचानक ठण्ड लगने लगती है। उसी प्रकार मनोवर्गणा के पुद्गल चारों तरफ फैले हुए हैं। हमारे अन्त:करण के जैसे विचार होंगे वैसे ही पुद्गल आकर्षित होकर हमारे पास आ जाएंगे। पर्युषण में तप सम्बन्धी विचारों के पुद्गल चारों तरफ फैले हुए होते हैं । उस कारण से जिसकी कल्पना