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गुरुवाणी-३
सिद्धचक्र के व्याख्यान को हमने मजबूती के साथ पकड़ रखा है। जब तक हमें यह ज्ञान नहीं होगा कि यह सब कुछ मिथ्या है तब तक हम इस संसार में से बाहर नहीं निकल सकते। कदाचित् हमें सम्यक दृष्टि भी प्राप्त हो जाए फिर भी हम उसे स्वीकार नहीं करते। श्रावक को नियमित रूप से नवकारसी और चउविहार करना चाहिए। हम यह जानते हैं फिर भी यदि हमें कहा जाए कि भाई इतना नियम ले लीजिए। सारा दिन आपको खाने की छूट है किन्तु सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के बाद त्याग करिए। क्या हम इसके लिए तैयार होते है? यह व्रतों का बन्धन हमें रूचिकर नहीं लगता है।
अविरती में ही हमें रस है। बहुत से लोग कहते हैं - साहब! हम करेंगे किन्तु नियम नहीं लेंगे। आवारा ढोरों/पशुओं के समान भटकते हुए खाते रहते हो। तुम्हारे भले के लिए तुम्हे कहते हैं - हे भाई! मसाला/गुटका न खाओ। क्या हम स्वीकार करते हैं? नाथ विनानो बळद अने नियम विनानो मरद दोनों ही किसी काम के नहीं होते हैं। नाथ बिना का बैल होगा तो वह सांड के समान ही घूमता रहेगा न! प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में उनको आने दो ऐसा कहकर प्रतिक्षा करते हैं और पूर्ण होने की क्रिया करते हुए कायोत्सर्ग में किसी को कुछ अधिक समय लग जाए तो झटपट हम क्रिया पूर्ण करके खड़े हो जाते है। मानो जेल में से छुटे हो, छुटने के जैसा उद्गार निकालते हैं। क्योंकि हमें अविरति ही अधिक अच्छी लगती है। ग्रहण करते हुए प्रतिक्षा करेंगे किन्तु पारते समय उनमें ऐसी अखुलाहट होगी की क्रिया पूर्ण कर शीघ्र ही घर भागू.... जब सच्ची समझदारी आएगी तब उसको संसार छोड़ते समय ऐसा लगेगा कि मैं छुट गया। हमें सामान्य नियम ग्रहण करना भी अच्छा नहीं लगता है। झूठ नहीं बोलना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए, विश्वासघात नहीं करना चाहिए, कपट से किसी को ठगना नहीं चाहिए, यह सब तो जीवन में स्वाभाविक रूप से होना ही चाहिए। किन्तु होता इसके विपरीत है। मिथ्यादृष्टि के कारण अथवा अविरती के कारण संसार पार करना