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सिद्धचक्र के व्याख्यान
गुरुवाणी-३ धर्म केवल क्रियाकांड नहीं है। शरीर हो किन्तु उसमें यदि प्राणों का संचारण न हो तो.... हम अच्छे विचार नहीं कर सकते, अच्छा बोल नहीं सकते और अच्छा काम नहीं कर सकते.... मैं किसलिए घिसता रहूँ? चन्दन घिसा जाता है उसके बदले में शीतलता और सुगन्ध देता है इसीलिए वह भगवान के मस्तक पर चढ़ाया जाता है। तीर्थंकर स्वयं को घिसते हैं इसीलिए उच्चतम पद को प्राप्त करते हैं। उन्होंने शासन की स्थापना क्या स्वयं के लिए की है? हम दूसरे को घिसने के लिए तैयार रहते हैं किन्तु स्वयं को घिसना खुद को अच्छा नहीं लगता। भला करने की भावना से विचारों में सुगन्ध बढ़ती है और दूसरे का बिगाड़ करने की भावना से विचारों में दुर्गन्ध बढ़ती है।
जिनके पाँच कल्याणकों के दिनों में नरक में भी प्रकाश छा जाता है। जगत् के कल्याण की भावना से भरा हुआ एक ज्योति स्वरूप आत्मा पृथ्वी पर अवतरण लेता है। उस समय जहाँ सर्वदा ही प्रत्येक काल में अंधकार ही अंधकार छाया हुआ हो, जहाँ निरन्तर दुःख ही दुःख हो वहाँ क्षणभर के लिए शान्ति का वातावरण फैल जाता है। कितना विलक्षण पुण्य है। संसार एक समुद्र है
___ भगवान् तीर्थंकर हैं। तीर्थ अर्थात् किनारा या घाट.... तालाब में, नदियों में, सरावरों में, सभी स्थानों पर उनके किनारे होते हैं, घाट होते हैं। किनारे के बिना हम इच्छानुसार तालाब इत्यादि में उतरने की इच्छा करें तो डूब ही जाएंगे। उसी प्रकार संसार रूपी समुद्र को तिरने के लिए यह तीर्थ एक किनारा है, घाट है। तीर्यतेऽनेन इति तीर्थम् । जो तारता है वह तीर्थ कहलाता है। संसार को समुद्र की उपमा क्यो दी जाती है। समुद्र में तो पानी होता है। संसार भी जन्म, जरा, मृत्यु रूपी जल से पूर्ण भरा हुआ है। यह पानी भी समुद्र के समान अत्यन्त गहरा है। उसको पार करना सहज नहीं है, क्योंकि हमारे पास सच्चा दर्शन नहीं है। हमें विपरीत बुद्धि ही मिली है। महापुरुष जिसका त्याग करने के लिए कहते हैं, उसी