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________________ ११३ गुरुवाणी-३ सिद्धचक्र के व्याख्यान करते हैं। सेठ का भावोल्लास देखकर मुनि भगवन्त वहोरने के लिए पधारते हैं। प्रथम पहर में तम्बू में कुछ भी तैयार नहीं मिलता है। क्या दान में दूंवहोराऊं। घी के कलश नजर आते हैं। पूरा कलश उठाकर पात्र में उंढेल देते हैं। शास्त्रकार कहते हैं कि उस समय उनकी ऐसी उच्च. भावधारा चलती है कि वे उसी समय बोधिबीज/सम्यक्त्व की प्राप्ति करते हैं। सेठ अन्य किसी प्रकार का धर्म नहीं जानते थे। और आचरण भी नहीं किया था। बस विशुद्ध भाव से ही उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का बन्धन किया। आज तक हम स्वार्थी विचारधारा में ही घूमे हैं । सगा भाई भी यदि धनवान बन जाए तो हमें प्रसन्नता नहीं होती। दुकान पर बैठकर हम यही सोचते है कि दूसरे को कैसे लूटा जाए? ऐसी निम्न स्तर की विचारधारा चलती है। विचारधारा का पुण्य, भगवान आदिनाथ का जीवन और भगवान महावीर का जीवन देखें तो ध्यान में आएगा। हम दूसरे की भलाई न कर सके तो न सही, किन्तु दूसरे की बुराई न करे ऐसा नियम तो लेना ही चाहिए। दूसरे की बुराई के ज्यों ही विचार आएं त्यों ही मन को उपालम्ब देना चाहिए, ऐसा विचार मुझे क्यों आया? यह तो अस्पृश्य विचार है। चण्डाल के समान है। हम चण्डाल से कितने दूर भागते हैं, वैसे ही खराब विचारों से दूर भागना चाहिए। हमारे गुरुदेव बापजी महाराज के क्रोध में भी भलाई के शब्द निकलते थे। कभी किसी शिष्य पर क्रोधित होते तो उसे क्या कहते – 'तेरा भला हो....' रोम-रोम में दूसरे की भलाई की भावना भरी हुई हो तभी ऐसे उद्गार निकलते हैं। सारे विश्व के लोगों की हम सहायता नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं, किन्तु हमारी दुकान में सामग्री लेने के लिए आये हुए ग्राहक को ऊँचा नीचा समझाकर ठगना नहीं चाहिए। यह तो सम्भव है न? क्या ठगने से ही तुम धनवान बन जाओगे? यह हमारी भ्रांत धारणा है। लक्ष्मी तो पुण्याधीन है। आज इतना मात्र तो करिए कि दूसरे का बुरा हो ऐसा विचार मुझे नहीं करना है, करना ही नहीं अपितु बोलना भी नहीं है।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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