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सिद्धचक्र के व्याख्यान
गुरुवाणी-३ कोटि का पुण्य उपार्जन होता है। हमारे रोम-रोम में स्वार्थ की भावना भरी हुई है। भगवान के रोम-रोम में परोपकार की भावना भरी हुई है। इसीलिए भगवान परार्थव्यसनी कहलाते हैं। विचारधारा का पुण्य
हमारी विचारधारा कितनी कमजोर है। एक संघ निकालने पर भी चाँदी के फ्रेम वाली सम्मानपत्र की आशा करते हैं। कितनी तुच्छता है? इसके स्थान पर ऐसा विचार करें कि इस मानपत्र के लायक मैं हूँ क्या? मेरे ऊपर कृपा कर इस संघ में सम्मिलित होकर मानव-मेदिनी ने मेरी लक्ष्मी को सफल बनाने का अवसर दिया है। ऐसी उच्च विचारधारा होनी चाहिए। धनसार्थवाह के भव में भगवान आदिनाथ सार्थ लेकर जाते है। मन में एक ही विचारणा है कि मैं एकाकी सुखी होऊं यह नहीं चल सकता। मेरे ग्राम के सब लोग सुखी होने चाहिए। इसीलिए वह सार्थ ले जाने के पूर्व घोषणा कराते हैं कि जिनको साथ चलना हो वे चलें, सारी सुविधाएं मेरी तरफ से प्राप्त होंगी.... बहुत से लोग सार्थवाह के साथ चलने के लिए तैयार हुए। उनके साथ आचार्य महाराज भी हैं। एक समय रात्रि में धनसार्थवाह जग जाता है, वहाँ उसके कान में वार्तालाप की शब्दध्वनि आती है। दो चौकीदार आपस में बातें करते हुए कहते हैं कि हमारे सेठ कितने उदार हैं! कितने दयालु है! कितने परोपकारी है! चौकीदारों के द्वारा की हुई अपनी प्रशंसा सुनकर सेठ मन में फूलते/हर्षित नहीं होते हैं किन्तु वे विचार करते हैं - वस्तुतः क्या इस प्रशंसा के लायक मैं हूँ? विचारते हुए तत्काल ही उनको आचार्य महाराज स्मरण में आते हैं.... अरे, इन आचार्य महाराज को तो मैं भूल ही गया। उन्होंने अपनी व्यवस्था किस प्रकार की होगी। स्वयं की भूल का गहरा पश्चाताप होता है। पश्चाताप की अग्नि इतनी अधिक प्रज्वलित बन जाती है कि प्रात:काल होते ही साधुमहाराज की ओर नंगे पैर ही दौड़ जाते है। आचार्य महाराज के चरणों में सिर रखकर माफी मांगते है.... लाभ देने के लिए आमंत्रित