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गुरुवाणी - ३
सिद्धचक्र के व्याख्यान
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उस आरे में रहे हुए जीव कालधर्म को प्राप्त करके नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं । वे अत्यन्त सरल स्वभाव के होते हैं । उत्सर्पिणी काल का पहला आरा चार कोडाकोडी सागरोपम वर्ष का होता है । दूसरा आरा तीन कोडाकोडी सागरोपम का तथा तीसरा आरा दो कोडाकोडी सागरोपम वर्ष का होता है। इसी प्रकार अवसर्पिणी काल का चौथा, पांचवाँ और छट्टा आरा नव कोडाकोडी सागरोपम वर्ष का होता है। कुल अट्ठारह कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति में धर्म होता ही नहीं है। तीसरे आरे का अधिकांश भाग व्यतीत होने पर अरिहंत भगवान का जन्म होता है और वे धर्म की स्थापना करते है । अरिहंत भगवान सूर्य के समान हैं। यह सूर्य अट्ठारह कोडाकोडी सागरोपम के अंधकार को नष्ट करता है ।
सिद्धचक्र के केन्द्र स्थान में अरिहंत परमात्मा हैं और अरिहंत परमात्मा के केन्द्र स्थान में जगत् के कल्याण की उच्च कोटि की भावना है। उस भावना से तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करते हैं । इस नामकर्म के प्रभाव से भगवान् में ऐसी शक्ति आ जाती है कि उससे वे तीर्थ की स्थापना करते हैं । स्थापना करना, यह बहुत बड़ा और कठिनतम कार्य है । रास्ता होने पर उस मार्ग पर चलने वाले हजारो मनुष्य होते हैं । किन्तु रास्ता बनाना यह कठिनतम है । तीर्थ की स्थापना के बाद हजारों लाखों लोग तिरते हैं। आज हजारों मनुष्य घर छोड़ते हैं, मौज-मस्ती छोड़ते हैं, किसके नाम पर ? भगवान महावीर के नाम पर ही न! अरे, भगवान का जन्म हुआ यह सुनने के लिए करोड़ो रूपये खर्च किए जाते है। कैसा विलक्षण व्यक्तित्व होगा कि एक व्यक्ति के नाम से हजारों लोग तिर गये। कैसा विलक्षण पुण्य होगा ! मासक्षमण के पारणे पर मासक्षमण । उसमें भी केवल एक ही चिन्तन रहता है कि समस्त जीवों को मैं सुखी कैसे करूँ? दुःख में से जीव कैसे मुक्ति प्राप्त करें! शासन प्रेमी बने ! सबका कल्याण कैसे हो ? यही एक चिन्तन धारा । भगवान के रोम-रोम में कल्याण की भावना रही हुई है । इस भावना में से ही ऐसा विलक्षण