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श्री सिद्धचक्र के व्याख्यान
आसोज सुदि ७
प्रथम पद
वर्ष में दो बार नवपद की आराधना करने में आती है। जहाँ देखो वहाँ मन्दिर में सिद्धचक्र का यन्त्र तो होता ही है। सिद्धचक्र एक चक्र है। उसके प्रत्येक पदों का महत्व बहुत अधिक है। जिस प्रकार घड़ी में एकएक पुर्जे का महत्व होता है। घड़ी पूर्ण हो किन्तु उसमें सुईयाँ न हो तो, सुईयाँ हो किन्तु चाबी न हो तो। सेल वाली घड़ी में सबकुछ है किन्तु सेल न हो तो, एक स्क्रू न हो तो घड़ी नहीं चल सकती। इसी प्रकार एक पद न हो तो उसका सामर्थ्य खंडित हो जाता है। नवपद में शासन है और शासन में नवपद है। उसके तीन विभाग हैं - देव, गुरु और धर्म । प्रारम्भ के दो पदों में देव हैं। बीच के तीन पदों में गुरु है और अन्तिम चार पदों में धर्म है। नवपद में पाँच गुणी है और चार गुण है । इन चार गुणों के बल पर ही अरिहंत सिद्ध आदि होते हैं । देव (अरिहंत देव) ने शासन की स्थापना की और गुरुओं ने उसे आगे बढ़ाया। प्रथम अरिहंत कैसे?
नवपद में प्रथम अरिहंत पद किसलिए है? अरिहंत परमात्मा के तो चार कर्म ही क्षय हुए हैं, जबकि सिद्ध परमात्मा के तो आठ कर्मों का क्षय हो गया है तब भी अरिहंत पहले और सिद्ध बाद में क्यों? यह इसलिए की हमारे सबसे निकट के उपकारी अरिहंत ही है। हमको मार्ग दिखाने वाले भी यही है। अरे, विश्व में सिद्धपद है ऐसा कहने वाले कौन है? अरिहंत के अतिरिक्त यह कौन समझाता है? वैसे तो मनुष्य धर्म से ही तिरता है ! फिर भी हम देव, गुरु और धर्म में देव को अधिक उपकारी मानते हैं। क्योंकि जैसे किसी सेठ ने संकटग्रस्त किसी व्यक्ति को १००