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दीर्घदृष्टि
गुरुवाणी-३ तो मेरी स्त्री ही बढ़-चढ़कर है, उसकी ही मुझे पूजा करनी चाहिए। अब वह अपनी स्त्री की पूजा करने लगा। स्त्री चिड़ गई और उसने हाथ उठाया, यह देखकर भाईसाहब ने भी डंडा उठाया और उसको मार दिया। स्त्री रोने लगी तब उस मनुष्य को लगा की अरे रे.... इन सबकी अपेक्षा तो मैं ही महान हूँ। कैसी मूर्खता है! कैसी अन्धश्रद्धा है!
ऐसे अनेक चमत्कार बताने वाले अनेक मत-मतान्तर आज विद्यमान हैं। ऐसे बाबालोग, भूत निकालने वाले और संन्यासीगण आज अनेक प्रकार के भोले मनुष्यों को ठग रहे हैं । ऐसे युग में विशेषज्ञ मनुष्य ही सच्चे तत्त्व को पा सकता है। .
बुझती हुई दीपक की ज्योति। अस्ताचल पर जाता हुआ सूर्य। नाभि में से उठती हुई श्वास।
दृष्टि खुली हो तो ही जान सकते हैं कि ये हमें मौत का संकेत दे रहे हैं, किन्तु हमारे पास तो वह आँख ही नहीं तो फिर दृष्टि को उघाड़ने की बात क्या करें?