SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०५ गुरुवाणी-३ दीर्घदृष्टि दिए थे, ठीक है। दूसरी बहू के पास से माँगे तो उसने कहा कि उन दानों को तो मैं खा गई थी। ससुरजी ने कहा – ठीक है। ससुरजी फिर तीसरी बहू से वे ही दाने माँगे। उसने तत्काल ही आलमारी मे से निकालकर दे दिए। चौथी बहू से ससुरजी ने उन दानों को माँगा। छोटी बहू ने कहा - पिताजी उन दानों को लाने के लिए तो आपको कई गाड़िया भेजनी पड़ेगी। ससुरजी ने बैल गाड़िया दी। पाँच सौ गाड़िया भरकर वे चावल लाए गये। दीर्घदृष्टि से ससुरजी ने देखा कि बड़ी बहू ने उन दानों को फेंक दिया था, उसको फेंकना ही आता है, अत: उसको घर की साफसफाई आदि का काम सौंप दिया। दूसरी बहू खा गई थी अतः उसको खाना ही आता है, ऐसा समझकर रसोई घर का काम उसे सौंप दिया। तीसरी बहू ने दानों को संभालकर रखा था अतः उसको घर के आभूषण और कीमती वस्तुएं संभालने का काम सौंप दिया। छोटी बहू ने अपने बुद्धि वैभव से उन दानों की वृद्धि की थी अतः उसको घर का सम्पूर्ण कार्यभार संभला दिया। इस घर की देख-रेख तुझे ही करनी है। सब लोग तेरे आदेश का पालन करेंगे। यह तो दृष्टान्त मात्र है, इसका उपनय इस प्रकार है। पुण्य के चार भेद हमें पुण्य को फेंक देना है, खा जाना है, संभालकर रखना है अथवा उसको बढ़ाना है? आज का अधिकांश वर्ग पुण्य को फेंक देता है। अर्थात् उड़ा देता है। तुम लोग मौज मस्ती में सारे धन को उड़ा देते हो न ! घूमने के लिए जाते हो। पाँच-पच्चीस हजार खर्च करके आते हो। किसी गरीब परिवार की सहायता की होती तो कितने मनुष्यों को सांत्वना मिलती। तो क्या तुम्हें भी इस पुण्य को उड़ा देना है? कितने ही मनुष्य पुण्य को खा जाने का कार्य करते है। उड़ाऊ मनुष्य जैसे-तैसे और जहाँतहाँ पैसे फेंकता ही रहता है। कितने ही मनुष्य पुण्य को संजोकर। सम्भालकर रखते है। प्राप्त-लक्ष्मी की कुछ बढ़ोत्तरी करते है.... जबकि
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy