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दीर्घ दृष्टि
आसोज सुदि६
परम कृपालु परमात्मा हमको धर्म का मङ्गलमय मार्ग बताते हुए कह रहें है कि धर्म का स्पर्श जीवन के साथ होना चाहिए। एक संघ निकाला, ९९ यात्रा करवाई, चौमासा करवाया और किसी स्थान पर भगवान को विराजमान किया। इससे धर्म कार्य पूर्ण हो गया ऐसा नहीं मानें।धर्म तुम्हारे प्रत्येक व्यवहार में गूंथा हुआ होना चाहिए।
वृक्ष के मूल में पानी सिंचन करने का होता है। उसकी शाखा या फल पर पानी का सिंचन नहीं होता है। मूल में सिंचन करोगे तो वृक्ष अपने आप ही फलेगा-फूलेगा। उसी प्रकार सुख की जो जड़ है उस धर्म का सिंचन करो। सुख अपने आप प्राप्त होगा। धन प्राप्त करने की तो अनादि काल की संज्ञा है आवश्यकता से अधिक नहीं ऐसी धारणा कर इस संज्ञा को दूर करके धर्म प्राप्ति की ओर मन को लगाओ। पैसा जीव को मनुष्य नहीं बना सकता.... अर्थात् मनुष्य जन्म नहीं दिला सकता। चक्रवर्ती के पास अरबों की सम्पत्ति होती है, यदि वह उसको नहीं छोड़ता है तो वह नरक में जाता है। सम्पत्ति मिल जाने से सद्गति मिल जाएगी, ऐसा सोचकर न बैठे। धर्म का गम्भीरता से विचार करना चाहिए। दीर्घदृष्टि से समझना चाहिए। शास्त्र में एक दृष्टान्त आता है। छिलके वाला धान
एक सेठ थे। उनके चार लड़के थे। चारों पुत्रों का विवाह कर दिया। सेठ अब संसार के व्यवहारों से मुक्त होने की आशा रखते थे। पुत्र जब सम्भालने योग्य हो गये उस अवस्था में तुम निवृत्त होने की इच्छा करोगे या नहीं? कितने ही मनुष्य ऐसे होते हैं कि अन्तिम सांस तक व्यापार धन्धे को नहीं छोड़ते। अन्त में मृत्यु आ जाती है, तब सब कुछ