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________________ १०२ दीर्घदृष्टि गुरुवाणी-३ रूप भी बदल देते हैं। परदेश में सेठ का पुण्य खिल उठा। बहुत धन कमाकर अपने देश लौटा। अखूट सम्पत्ति के साथ अपने देश लौटने पर गाँव के मनुष्यों को खबर पड़ी कि सेठ बहुत धन कमाकर आ रहा है। सेठ का सामैय्या करना चाहिए। सब मित्र इकट्ठे हुए, सामैय्या लेकर सामने गये। सेठ पूर्णतः सामान्य वेश में आ रहे थे। किसी को कल्पना भी नहीं आ सकती की यह अरबपति है। सेठ आगे चलता है, पीछे घोड़े पर धन की थेलियाँ रखी हुई है। एक-दो घोड़े नहीं वरन् पच्चीसों घोड़ों का झुन्ड आ रहा है। सबसे आगे सेठ चल रहा है। बहुत वर्ष बीत जाने और सादे वेश में रहने के कारण लोग सेठ को पहचान नहीं पाते। उसको सेठ का नौकर समझकर पूछते हैं - सेठ कहाँ है? सेठ ने कहा - पीछे घोड़े पर आ रहा है। लोग पीछे की ओर गये। देखा, तो घोड़े पर तो माल और सामान के अतिरिक्त कुछ नहीं था। वापस आगे आकर सेठ को ही पूछते है - पीछे तो कुछ भी नहीं है, क्या तुम ही सेठ हो? सेठ कहता है - सेठ तो मैं स्वयं हूँ, किन्तु जिसका स्वागत करने के लिए तुम लोग आए हो वह तो घोड़े की पीठ पर है। It is on the Horse back. लोगों का लज्जा के कारण मुँह झुक गया। सेठ कहता है - मैं तो वही का वही हूँ। पहले जब मेरे पास यह धन था, तब तुम मेरी पूजा करते थे। और आज यह धन वापिस मेरे पास आ गया है, तो तुम भी सत्कार/पूजा करने के लिए आ गये हो। संसार में ऐसा ही चलता है। स्वार्थ होगा वहाँ तक तुम्हारी फूलों से पूजा होगी, स्वार्थ खत्म होने पर वे ही लोग तुम्हे पत्थर मारने वाले होंगे। इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि भाई! तनिक विचार करो। दीर्घ दृष्टि से विचार करोगे तो तुम्हारी समझ में आएगा की इस धन-दौलत की कोई महत्ता नहीं है। युवावस्था में मनुष्य धन के लिए अपने आरोग्य का मटियामेट कर देता है।और वृद्धावस्था में आरोग्य के लिए धन गंवाता है।और अन्त में उसके पास कुछ नहीं रहता।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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