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________________ दीर्घ दृष्टि आसोज सुद५ परम कृपालु परमात्मा करुणापूर्वक हमको समझा रहे हैं कि तुम धर्म का मार्ग जैसा मानते हो, उतना कठिन नहीं है । है तो सरल ही; किन्तु उसके पहले दिमाग में यह बराबर बिठाना पड़ेगा। लेकिन आज के मनुष्य के दिमाग में विविध चिन्ताएं भरी पड़ी है। संसार की चिन्ता में व्यस्त व्यक्ति को धर्म का विचार करने का अवकाश ही कहाँ है ? जिस जन्म के मिलने के बाद स्वर्ग और मोक्ष तक पहुँचा जा सकता है, वैसा दुर्लभ जन्म मिलने के बाद भी यदि हम इसी प्रकार नष्ट कर देंगे तो दुःख का अन्त कब आएगा । दीर्घ दृष्टि से विचार करें तो तुम्हारी समझ में आएगा की धर्म कैसा अमूल्य है? तुम तुम्हारी मनुष्य जाति के साथ तुलना तो करो कि वह झोपड़ी में रहने वाले लोगों की अपेक्षा हम कुछ सुखी हैं, क्यों? तुम्हारे पास कोई विशेष वस्तु है इसीलिए न! और वह विशिष्ट वस्तु है धर्म | इस भव में तो मालूम नहीं कि तुम किस प्रकार का और कैसा धर्म कर रहे हो ? किन्तु पूर्व जन्म में किए हुए धर्म के कारण ही निश्चित रूप से तुम्हे शान्ति मिल रही है। लक्ष्मी को आकर्षित करने की आवश्यकता नहीं है । वह स्वयं आती है तो आने दो पुण्य उसको खेंच कर लाएगा। यदि तुम परिश्रम के बल पर खेंचना चाहोगे तो तुम ही टूट जाओगे । न्याय-नीति पूर्वक तुम अपना काम कर्त्तव्यपूर्वक करो उससे लक्ष्मी दौड़ती हुई स्वयं तुम्हारे सन्मुख आएगी। लिखा हुआ लेख मिथ्या नहीं होता ! एक राजा था। वह निःसन्तान था । इस कारण वह चिन्तातुर रहा करता था । प्रजा भी चिन्ता में थी । क्योंकि राजा और प्रजा के बीच में पिता-पुत्र जैसा सम्बन्ध था । राजागण प्रजा वत्सल रहते थे । लींबड़ी के राजा गाँव में किसी की मृत्यु होने पर, वे स्वयं वहाँ बैठने जाते । उसको I
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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