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अन्धेरे में भटकता जगत
गुरुवाणी-३ पास आकर खड़ी रहेगी.... उसको खोजने के लिए परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है। पुण्य पैदा करो, सब कुछ ठीक हो जाएगा। दृष्टि रूपी चश्मा
माइनस नम्बर वाले मनुष्य को निकट का सबकुछ दिखाई देता है, दूर का कुछ भी नहीं दिखाई देता है। दूर देखने के लिए तो उसे चश्मा पहनना ही पड़ता है.... उसी प्रकार हमारी दृष्टि भी माइनस बन गई है। अपने निकट में रहे हुए पत्नी, पुत्र, परिवार और धन-दौलत दिखाई देते हैं, किन्तु दूर के परलोक को हम देख नहीं पाते। यदि उसको देखना हो तो हमें सद्गुरु के बोध रूपी चश्में को धारण करना पड़ेगा । हम अंधकार में ही भटक रहे हैं। प्रकाश की किरणों तक हम पहुँचे ही नहीं। कदाचित् हमारे समक्ष प्रकाश आ जाए तो हम अपनी आँखों को बन्द कर लेते हैं। जैसे अन्धेरे में अचानक प्रकाश देखते हैं, तो हमारी आँखें अपने आप ही बन्द हो जाती हैं.... अहंकाररूपी अन्धेरे में हम भटक रहे हैं। इसी कारण सत्य के निकट नहीं पहुँच पाते। यदि कोई सत्य समझाता है, बताता है तो हम उसको छिटका देते हैं। अपने दोषों को देखने के प्रति हम अन्धे बन गये हैं। आज का सुधरा हुआ(?) मानव....
मनुष्य सुख के भ्रम में जी रहा है। धर्म से सुख मिलता है यह उसकी बुद्धि में नही उतरता। धर्मवान बनने के लिए पहले गुणवान बनना होगा। परिणाम का विचार किए बिना ही आज का सुधरा हुआ, शिक्षित मानव प्रवृत्ति करता जाता है। क्रोध के आवेश या मान के आवेश आदि आवेशों में किए हुए कार्यों का परिणाम पीड़ी दर पीड़ी चलता रहता है। आज पैर ठण्डे हो गए हैं और दिमाग गरम हो गया हैं। पैरों को गरम रखना था, किन्तु उसके अभाव में कहीं निकट में जाना हो तब भी स्कूटर, गाड़ी के बिना चलता ही नहीं है। चलने की क्रिया तो आज प्रायः समाप्त सी हो गई है। इसी कारण शरीर भी कितना बेडौल और रोग का घर बन गया