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________________ गुरुवाणी-३ सुपक्ष से युक्त प्रेम और कहाँ आज की सन्तानों का स्वार्थी प्रेम। पत्थर दिल मनुष्य का भी कलेजा कांप उठे वैसी स्थिति इस आश्रम में है। धर्म का प्रारम्भ ही माता-पिता से होता है। सर्वप्रथम इनकी पूजा और उसके बाद समस्त धर्म की। तुम मन्दिर जाते हो या नहीं? और पूजा करते हो या नहीं? यह तो सब बाद की बातें है, किन्तु तुम जहाँ भी हो, वहाँ से माता-पिता को मन से त्रिकाल नमस्कार किया करो। यह धर्म की भूमिका है और यही भूमिका मनुष्य को उच्च शिखर पर पहुँचाती है। वाणी का चमत्कार ___ सन्त की मीठी वाणी सुनकर डाकू का हृदय भी पिघल गया। सत्संग का उस पर तत्काल ही प्रभाव पड़ा। जगत में दो चीज दुर्लभ हैं इसी बात को सन्त तुलसीदास कहते हैं : "सन्त समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय, सुत-दारा और लक्ष्मी पापी के भी होय।" अर्थात् सन्त का समागम और हरि कथा ये दोनों ही अत्यन्त दुर्लभ है । सन्त के समागम से अच्छे-अच्छे पापी जीव भी पवित्र हो गए हैं। अनेक डाकू और लूटेरे भी सन्त का समागम प्राप्त कर इस मानव जीवन को सार्थक कर गये हैं। शेष पुत्र, पत्नी और लक्ष्मी तो पापियों के घर भी होती है अतः धन मिलना यह महत्त्व नहीं रखता किन्तु सन्त का समागम मिल जाए यह महत्त्व का है। इस डाकू ने भी उसी समय प्रतिज्ञा की कि अन्य के अधिकार की वस्तु मुझे नहीं चाहिए। मजदूरी करके ही मैं अपना गुजारा चलाऊँगा। पति और पत्नी दोनों ने पाप जनित कार्यों को छोड़कर धर्म के मार्ग पर चलने लगे और समय मिलने पर प्रभु के नाम का स्मरण भी करने लगे। प्रभु का नाम यह एक अपूर्व औषधि है। यदि सच्चे भाव से लोग उसका स्मरण करें तो सारे दुःख अपने आप दूर हो जाते हैं।
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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