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________________ ८६ सुपक्ष से युक्त गुरुवाणी-३ कहा- मारना और लूटना यह मेरा व्यवसाय है। अ..र..र! एक पेट के खड्ढे को भरने के लिए, तू इतना क्रूर आचरण करता है। कितने लोगो के हृदय की तूने हाय ली है। परिवार के एक मुखिया को तू यदि मार देता है, तो उसका सारा परिवार बरबाद हो जाता है। उसकी तुझे कितनी हाय लगती होगी। ऐसे एक नहीं तूने हजारों परिवारों की 'हाय' ली है। तेरा क्या होगा? शास्त्रकार कहते हैं कि किसी की भी 'हाय' मत लो। यह हाय तुम्हारे सुखमय जीवन रूपी बाग को जलाकर भस्म कर देगी। मैंने बहुत सी घटनाएं सुनी हैं। माँ-बाप और बड़ों की हाय लेने वाले बाद में कहीं के न रहे। इसके अतिरिक्त सोचिए, दुकान में बैठे हों और उस समय किसी को खराब माल बेचकर पैसा लें ले तो वह ग्राहक की हाय को नहीं लोगे? उसकी हाय तुम्हारे व्यवसाय को जड़ से बरबाद कर देगी। आज तो तीर्थस्थानों में ऐसा अधिकतर चलता है। शंखेश्वर जैसे तीर्थ में व्यक्ति तीर्थ दर्शन के साथ खरीदी भी करता जाता है । मुम्बई जाने के बाद खरीदे हुए माल को देखता है, तो नमूने के तौर पर अच्छे से अच्छा माल देखा था। लेकिन माल बिल्कुल हल्का निकलता है । अब वहाँ से जाने के बाद उस माल को बदलवाने के लिए कौन आएगा? किन्तु किसी के साथ इस प्रकार का विश्वासघात करने से वह कभी भी बढ़ोत्तरी नहीं कर सकता है। वृद्धाश्रम की व्यथा ___ माण्डवी के वृद्धाश्रम में हम एक-दो दिन रहे। माता-पिता के हृदय की हाय आज के पुत्र लेते हैं। उनके हृदय की हाय, वेदना सुनकर हमारा हृदय कांप गया। माँ-बाप को छोड़ने पर भी वे ही माँ-बाप स्वयं के पुत्र-पौत्रों को याद करके आँखों से आंसू बहाते हैं। बेचारे कितने ही वृद्ध तो मन में यह आशा संजोए रहते हैं कि हमारा पुत्र आकर हमें ले जाएगा। आज ले जाएगा, कल ले जाएगा इसी आशा ही आशा में द्वार पर आँख लगाकर रात-दिन बिताते रहते हैं। कहाँ माता-पिता का नि:स्वार्थ
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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