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सुपक्ष से युक्त
आसोज सुदि ३
धर्म के योग्य अधिकारी का चौदहवाँ गुण सुपक्ष से युक्त होना है। सुपक्ष से युक्त अर्थात् सत्संग वाला होना चाहिए। उसकी बैठक में बैठने वाले श्रेष्ठ लोग होने चाहिए। यह बहुत ही आवश्यक है । आज तो अच्छे से अच्छे मनुष्य भी दूषित मनुष्यों की बैठक के कारण शराबी और जुआरी बन गए हैं। अच्छे मनुष्यों की संगत से कदाचित् हम दुर्व्यसनीय हों तब भी धीरे-धीरे सुधर जाते हैं। मुम्बई जैसे शहर में भी सत्संग होगा तो ही बच सकते हैं । अन्यथा फिसलते हुए समय नहीं लगेगा। सत्संग से तो भयंकर - खूँखार डाकू भी सज्जन बन गया । डाकू से सन्त किसने बनाया?
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एक डाकू था। खून और लूटपाट करना उसका धंधा था । रातदिन उसी में लगा रहता था । एक समय उसकी एक सन्त से भेंट हुई । 'साधूनां दर्शनं पुण्यम्।' अर्थात् सन्तों का दर्शन भी पुण्य को खेंचकर लाता है। तो फिर उनके सत्संग की तो बात ही क्या कहनी? कबीर एक स्थान पर लिखते है
"कबीर संगत साधु की, हरे आधि और व्याधि, बुरी संगत असाधु की, आठों पोर उपाधि ।"
अर्थात् सज्जनों के सत्संग से मनुष्यों के दुःख-दर्द दूर हो जाते हैं जबकि दुर्जनों के सत्संग से मनुष्य आठों पहर उपाधि का वहन करता है। सन्त के दर्शन मात्र से उस लूटेरे का मन शान्त बन गया । सन्त के पास बैठने की उसकी कामना हुई । वह उनके पास बैठा । सन्त ने देखा कि लगता तो यह राजद्रोही है किन्तु इसका हृदय परिवर्तन के किनारे पर है, अत: समझाने की कोशिश करुं । सन्त ने पूछा- तुम क्या करते हो? उसने