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सत्कथा
गुरुवाणी-३ भगवान के चरण पर धरते हैं । पर, यह कब बनता है? अहंकार से मुक्त बनेंगे तभी न! मनुष्य या तो अहंकार की कथा में फंसा हुआ रहता है अथवा द्वेष की कथा में। दूसरे का कोई गुणगान करता हो तो उसमें से उसके दोषों को चुन-चुनकर उसको नीचा दिखाने का प्रयत्न किया जाता है। आज तो चारों तरफ ये कथाएं ही चल रही हैं। ये कथाएं करने वाले मनुष्यों का विवेक रूपी रत्न नष्ट हो जाता है। मन कलुषित रहता है। धर्म में विवेक का स्थान सर्वोपरी है। अब तो विवेक ही न रहा? अतः धर्मार्थी को सत्कथी होना चाहिए।
अप्रमत्त, त्यागी, तपस्वी और दूसरों
का कल्याण चाहने वाले जैन साधु निष्पाप, निष्परिग्रही, निश्चिन्त, निःस्पृही, निर्दम्भ, निरुपाधिक, निर्मल, निरुपद्रवी और निरोगी – नौ 'न' कार से युक्त जीवन जीने वाले होते हैं।
संसारियों का जीवन जीवों की यातना पर है जबकि संयमियों का जीवन जीवों की यतना पर है।