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सत्कथा
गुरुवाणी - ३ सरेआम कैसे रख सकते हैं? आज तो इस स्पर्धा ने बहुत से लोगों को वासना ग्रस्त बना दिया है। चारों तरफ ऐसा ही वातावरण हो तो उसका प्रभाव पड़ता ही है। अतः ऐसी कथाएं जहाँ चलती हों वहाँ धर्मी मनुष्य को खड़ा नहीं रहना चाहिए।
२. भक्तकथा
दूसरी कथा है भक्तकथा अर्थात् भोजन कथा - जगत् का अधिकांश भाग अर्थात् स्त्री वर्ग भोजन कथा में ही रचा-पचा है। प्रातः उठने के साथ ही भोजनकथा शुरू होती है और वह सोने के पूर्व तक चलती रहती है। पहले तो रसोई तक ही भोजन कथा रहती थी और आज तो सुधरे हुए शिक्षित (?) युग में पत्र-पत्रिकाएं और कितनी ही पुस्तिकाओं में किस प्रकार के पदार्थ और किस पद्धति से बनाए जाएं इन बातों से भरी रहती है। भूख लगी, भोजन किया उसके बाद क्या खाया और कैसे बनाया इन बातों का अर्थ क्या? आज तो उपाश्रय में भी जाते हैं, तो वहाँ भी एक बहन दूसरी बहन से पूछती है - आज क्या बनाया था? वह पदार्थ किस प्रकार से बनता है? धर्मकथा के स्थान पर भी भोजन कथाओं की चर्चाएं चलती रहती हैं । इसीलिए उदयरत्नजी महाराज को सज्झाय बनानी पड़ी कि "आज मारे एकादशी रे, नणदल मौन धरी मुख रहीये..." घर से निकलने के बाद घर की बातें बन्द कर देनी चाहिए | बाहर निकलने पर श्रेष्ठ चर्चा ही करनी चाहिए। जिससे तुमको भी लाभ होगा और सुनने वाले को भी लाभ होगा।
३. देशकथा
तीसरी कथा है देशकथा :- भिन्न-भिन्न देशों की कथा । इस देश में यह चलता है! उस देश में यह चलता है! भांति-भांति के देशों की चर्चा करने पर हमारे हाथ क्या लगना है। इन कथाओं में मस्त हो जाने पर वहाँ परमात्मा की कथा का ध्यान कैसे आ सकता है?