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________________ गुरुवाणी-२ क्षमापना ८१ नहीं आए और उनके साथ परिवार के समस्त सदस्यों को भी रोक दिया। एक दिन, दो दिन, तीन दिन, प्रतीक्षा करते रहे किन्तु वह नहीं आए। अन्त में पर्युषण का अन्तिम दिवस आ गया। सोचा आज तो मूल कल्पसूत्र सुनने के लिए अवश्य आयेंगे ही, किन्तु फिर भी नहीं आए। सांझ का समय हो गया। सम्वत्सरी प्रतिक्रमण करने के लिए तो अवश्य आयेंगे। गुरु महाराज राह जोते-जोते थक गए। श्रावकों का समुदाय प्रतिक्रमण करने के लिए आ गया है किन्तु कल्याणमल्ल नहीं आए। गुरु महाराज ने सोचा कि क्षमायाचना के बिना मेरा प्रतिक्रमण शुद्ध नहीं कहा जाएगा। भले ही कल्याणमल्ल नहीं आए हों मैं उनके घर जाकर क्षमायाचना करूँगा। भूल मेरी है। श्रावक लोग प्रतिक्रमण के लिए तैयार बैठे हैं। गुरु महाराज शिष्य को साथ लेकर कल्याणमल्ल के घर की ओर निकले। कल्याणमल्ल ने दूर से आते हुए गुरु महाराज को देखा और तत्काल ही घर के आदमियों को आदेश दिया कि मकान के दरवाजे बन्द कर दो। स्वयं छत पर चले गये। गुरु महाराज द्वार के पास आए, दरवाजा बन्द देखकर खटखटाया। दरवाजा खोलने की मनाही थी इसीलिए दरवाजा नहीं खोला। परिवार के लोगों ने कल्याणमल्ल से निवेदन किया - गुरु महाराज स्वयं चलकर के अपने घर के आंगन पर पधारे हैं, दरवाजा खोलने दो, किन्तु नहीं। गुरु महाराज ने बहुत बार दरवाजे को खटखटाया किन्तु जब दरवाजा नहीं खोला गया तो अन्त में हारकर गुरु महाराज बड़े ऊँचे स्वरों में बोले - कल्याणमल्ल! मेरे और तेरे बीच में जो कुछ भी हुआ है उसके लिए मिच्छा मि दुक्कडम् देता हूँ। मैं तुझे खमाता हूँ। ऐसा कहकर गुरु महाराज वापस चल दिए। गुरु महाराज की शीतल वाणी से कल्याणमल्ल की क्रोधाग्नि कुछ शान्त हुई। छत पर से वह नीचे उतरा, परिवार के साथ उपाश्रय आया। प्रतिक्रमण करने बैठा। प्रतिक्रमण में जहाँ सर्वजीवराशि खमाने की क्रिया आती है वहाँ कल्याणमल्ल एकदम खड़े हुए और गुरु महाराज के चरणों में गिर पड़े। क्षमा माँगी, केवल इतना ही नहीं, किन्तु
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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