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________________ ८२ क्षमापना गुरुवाणी - २ जिनके साथ पच्चीस-पच्चीस वर्ष से वैर बँधा हुआ था उस सहस्रमल्ल के पास गए और उनके चरणों में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगे। वैराग्नि समाप्त हुई। दोनों के बीच में मैत्री भाव स्थापित हुआ। कैसी अजब शक्ति है इस क्षमायाचना में । इस भव में बँधी हुई वैराग्नि भवान्तरों में अत्यधिक क्लेशदायक होती है और इसका हिसाब चुकाया नहीं तो यह बहुत भारी पड़ जाती है। यहाँ नमन करने मात्र से जो हिसाब-किताब साफ हो जाता है वह यदि बंधन के रूप में जलती रही तो भवान्तर में रो-रो कर इसका हिसाब चुकाना पड़ता है । शास्त्रकारों ने कहा है कि समस्त शास्त्रों का यदि कोई सारांश है तो वह क्षमा ही है । इस पर्वाधिराज की आराधना तभी सफल होती है कि जब हम कट्टर से कट्टर दुश्मन के साथ भी दिल खोलकर हृदय से क्षमा माँगते हैं। भले ही भूल अपनी न हो, सामने वाले की हो किन्तु ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि पहले तुम सामने वाले व्यक्ति को क्षमा करो और उसके बाद उससे क्षमा याचना करो। तुमने यदि गद्गद हृदय से क्षमा माँगी होगी तो सामने वाले की आत्मा भी क्षमा प्रदान करेगी ही । कदाचित् वह क्षमा न भी दे, तो भी उसके बाद तुम्हारा कोई दोष नहीं है। क्षमा में सहन करना बहुत थोड़ा है और इससे प्राप्ति बहुत गुना अधिक होती है। तप करने में शरीर सुखाना पड़ता है। - जप करने में समय देना पड़ता है। - दान देने में रुपये निकालने पड़ते हैं। -ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि कसनी पड़ती है। जबकि क्षमा की जड़ी बूटी बहुत सस्ती है। जिसमें खून घटता या बढ़ता नहीं है, शक्ति, माँस और हड्डियों को किसी प्रकार का घसारा नहीं लगता। जेब से पैसे नहीं निकालने पड़ते और समय अथवा बुद्धि का भोग नहीं देना पड़ता । केवल मन के साथ समाधान करना होता है । -
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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