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________________ क्षमापना ७९ गुरुवाणी - २ पश्चात्ताप की अग्नि इतनी अधिक तेज हो जाती है कि उसमें उसके समस्त कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं। मृगावती को निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होता है। भयंकर रात्रि और घोर अंधकार है, उसी समय एक काले सर्प को चन्दनबाला की तरफ बढ़ता हुआ मृगावती देखती है। सर्प के मार्ग में चन्दनबाला का हाथ आता है । मृगावती चन्दनबाला के हाथ को धीरे से उठा लेती है। चन्दनबाला जग जाती है और पृछती है - मेरा हाथ ऊँचा करने का कारण क्या था ? मृगावती ने कहा - भगवती ! सर्प आ रहा था इसीलिए मैंने हाथ ऊँचा किया था । चन्दनबाला कहती है - इस घोर अन्धेरी रात में तुमने सर्प कैसे देखा । मृगावती कहती है आपकी कृपा से। चन्दनबाला सोचती है - कृपा अर्थात् क्या? मृगावती कहती है - ज्ञान के बल से । चन्दनबाला कहती है- कौनसा ज्ञान? प्रतिपाति या अप्रतिपाति? अर्थात् आकर चला जाए वैसा या स्थिर रहे ऐसा । मृगावती कहती है न जाने वाला ज्ञान प्राप्त हुआ है। इन शब्दों को सुनते ही चन्दनबाला पश्चात्ताप करने लगती है - अरे ! ऐसी महाज्ञानी (केवलज्ञानधारी) की मैंने आशातना की है, मृगावती से क्षमायाचना करती है । खमाते - खमाते ही ज्ञान की धारक बन जाती है और केवलज्ञान को प्राप्त करती है। सच्चे भाव से खमाया जाता है तब दोनों ही आत्माओं का, खमाने वाले का और क्षमा देने वाले का कल्याण होता है । - उपाध्याय श्री धर्मसागरजी महाराज . विजयहीरसूरिजी महाराज के समकालीन उपाध्याय धर्मसागरजी महाराज हुए थे। विक्रम संवत् १५९५ में १६ वर्ष की अवस्था में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी । उच्च कोटि के विद्वान् थे और महाप्रभावशाली थे । वे विहार करते हुए किसी गाँव में आए और वहाँ चौमासा भी किया। उस गाँव में कल्याणमल्ल और सहस्रमल्ल नाम के दो मुख्य श्रावक थे। उस युग में पगड़ी पहनने का रिवाज था । कोई भी नंगे सिर नजर नहीं आता था। आज दुनिया उल्टी चल रही है, किसी का भी सिर ढंका हुआ नजर नहीं
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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