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________________ ७८ क्षमापना गुरुवाणी-२ ने मेरे जैसे कूटनीतिज्ञ को मूर्ख बना दिया। अब मैं क्या करूँ? इधर मृगावती ने विचार किया - अभी तो मैं जैसे-तैसे छूट गई हूँ, अब यदि भगवान् महावीर यहाँ पधार जाएं तो मैं दीक्षा ग्रहण कर लूँ। संकल्प सच्चा हो तो फल भी तत्काल मिलता है। भगवान् कौशाम्बी नगरी में पधार गये हैं। समाचार मिलते ही मृगावती ने आदेश दिया- दरवाजे खोल दो। भगवान् पधारे हैं इसीलिए किसी प्रकार का उपद्रव या भय होने कि सम्भावना नहीं है। आदेश का पालन हुआ, दरवाजे खुल गये। मृगावती भगवान् की देशना सुनने के लिए जाती है। चण्डप्रद्योत भी भगवान् पधारे हैं यह सुनकर वन्दना करने और देशना सुनने के लिए जाता है। दोनों देशना सुनते हैं। देशना के पश्चात् मृगावती कहती है - भगवन् चण्डप्रद्योत मुझे दीक्षा की अनुमति प्रदान करे और मेरे पुत्र का रक्षण करे, तो मैं दीक्षा ग्रहण करने के लिए तैयार हूँ। भगवान् उसी समय अपनी दृष्टि चण्डप्रद्योत की ओर फेंकते हैं। चण्डप्रद्योत तत्काल ही खड़ा होकर निवेदन करता है - भगवन् मैं मृगावती को दीक्षा की आज्ञा देता हूँ, साथ ही इस रानी के साथ कोई भी दीक्षा ग्रहण करना चाहे तो मेरी अनुमति है। मृगावती चन्दनबाला के पास दीक्षा ग्रहण करती है। मृगावती चन्दनबाला की मौसी लगती है। एक समय साध्वी चन्दनबाला मृगावती आदि भगवान् की देशना सुनने के लिए जाते हैं। चन्दनबाला समय होते ही अपने स्थान पर लौट आती है। चन्द्र और सूर्य भी अपने मूल विमान से देशना सुनने के लिए आए थे। मृगावती भगवान् की देशना में इतनी मग्न हो गयी थी कि उस प्रकाश के कारण मृगावती को समय का ध्यान नहीं रहा और स्थान पर पहुँचने में समय लग गया। चन्दनबाला उपालम्भ देती है। चन्दनबाला भांजी है और स्वयं मौसी और महासती है। ऐसा होने पर भी मृगावती शान्तचित्त और समता भाव से उपालम्भ को सहन कर लेती है। अपनी भूल के लिए क्षमा माँगती है। प्रतिक्रमण करने के बाद चन्दनबाला आराम करती है। मृगावती स्वयं की भूल का गहन पश्चात्ताप करती है।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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