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________________ ६६ पर्युषणा-तृतीय दिन गुरुवाणी-२ ही। अब सोचने का प्रश्न ही कहाँ रहा। पास में ही विराजमान गुरु महाराज के पास सब लोग पहुँचे और सारी घटना उनको निवेदन करते हुए बतलायी कि देदाशा सोने का उपाश्रय बनाने के लिए कहते हैं। गुरु महाराज ने कहा - देदाशा ! इस हीनकाल/अवनति काल में सोने का उपाश्रय नहीं बनाना चाहिए। देदाशा ने कहा - महाराज! जो वचन निकल गया सो निकल गया। मैं तो सोने का उपाश्रय बनाकर ही रहूँगा। गुरु । महाराज के बहुत कुछ समझाने पर भी देदाशा अपनी बात से टस से मस | नहीं हुए। उपाश्रय का निर्माण कार्य चालू हुआ। उसी समय श्रेष्ठ केशर के ५० पोठे लेकर कोई सार्थवाह वहाँ से निकला। देदाशा ने ४९ पोठे चूने की चक्की में डलवा दिए। उपाश्रय स्वर्ण के रंग वाला बन गया। इस प्रकार देदाशा ने अपने बोले हुए वचन पूर्ण किए। एक पोठ समस्त मन्दिरों में भिजवा दी। सोने की कीमत के समान केशर का प्रयोग करके स्वर्ण जैसे रंग का, सोने की बराबर कीमत का उपाश्रय उन्होंने बनवाया। देदाशा के भतीजे का नाम सोना था। इसीलिए उपाश्रय का नाम भी सोना का उपाश्रय पड़ा। इस प्रकार साधर्मिक भक्ति की। कहाँ का निवासी कहाँ खर्च कर गया। साधर्मिकों द्वारा प्रदत्त अन्न पेट में जाने पर वह साधर्मिक भक्ति के लिए प्रेरित करता है। प्रभावना के अर्थ पर ही परभावना बना है जो दूसरे की भावना को प्रकट करता है। देदाशा का पुत्र पेथड़ शाह हुआ। पुत्र भी पिता के साथ सुवर्ण सिद्धि में सहयोग करता था। रोज सोना बनाना और उसका दान देना यह पिता-पुत्र का नित्य क्रम था। समय बीतता गया। पेथड़ का लग्न प्रथमिणी के साथ हुआ था। पेथड़ का पुत्र झांझण हुआ था। यह छोटा सा परिवार आनन्द-कल्लोल में समय बिता रहा था। अचानक ही यमराज ने अपना डंडा उठाया। एक समय देदाशा की पत्नी विमलश्री ने पाँच दिनों का उपवास किया था। पारणे में अमृत रस के समान खीर का भोजन करने बैठी थी, उसी समय फुल देने के लिए मालण आयी, उसने वह खीर देखी। मालन की नजर
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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