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________________ गुरुवाणी-२ पर्युषणा-तृतीय दिन लग जाने के कारण उस खीर को खाने से विमलश्री को विसूचिका हो गई। थोड़े समय में ही उसका देहावसान हो गया। देदाशा को प्रबल आघात लगा। आघात में ही ज्वर चढ़ा। अन्त समय नजदीक जानकर पेथड़ को बुलाकर सुवर्ण सुद्धि का प्रयोग बतलाया। देदाशा भी काल कर गये। माता-पिता के अकस्मात् चले जाने के कारण पेथड़ को गहरा आघात लगा। दुःखनुं ओसड दहाडा अर्थात् दिवस बीतने लगे। पेथड़ ने स्वर्ण सिद्धि का प्रयोग किया किन्तु भाग्य ही विपरीत हो तो क्या किया जाए? वह प्रयोग-साधन में निष्फल हो गया। देदाशा तो सोना बनाकर दान में देते थे। घर में कुछ रखते नहीं थे। इसी कारण पेथड़ पूर्णतः निर्धन बन गया। पेथड़ और झांझण फेरी लगाकर अपना गुजारा चला रहे थे। उसी समय धर्मघोषसूरिजी महाराज पधारते हैं। वे कौन थे? पेथड़ का परिग्रह-परिमाण.... वड़वृक्ष के नीचे पूज्य जगत्चन्द्रसूरिजी महाराज की आचार्य पदवी हुई थी और इसी कारण यह वड़गच्छ कहलाया। वड़ के समान इसका विस्तार भी हुआ। यही कारण है कि पूर्व में ऐसे स्थानों पर पदवी दान आदि होता था। जगत्चन्द्रसूरिजी महाराज जीवन पर्यन्त दो द्रव्य से ही आयम्बिल करते थे। उग्र तपस्वी थे। आघाट नगर के राजा ने उनकी उग्र तपस्या को देखकर उन्हें तपा पदवी दी थी। इसी कारण से वह गच्छ आज भी तपागच्छ के रूप में पहचाना जाता है। मूलजड़ में तो महातपस्वियों की भावना ही सिंचित है इसी कारण आज भी चारों ओर तप, धर्म का बोलबाला है। उनके पट्टधर देवेन्द्रसूरिजी हुए। उनके शिष्य थे - धर्मघोषसूरिजी महाराज। छोटी अवस्था में ही उन्होंने छ:हों विगइयों का त्याग कर दिया था। चौसठ योगिनियाँ उनके वश में थीं। अनेक सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त थीं। ऐसे प्रखर त्यागी तपस्वी धर्मघोषसूरिजी महाराज देशना दे रहे थे। परिग्रह-परिमाण पर व्याख्यान चल रहा था। उस व्याख्यान में पेथड़शाह भी आए हुए थे। गुरु महाराज ने श्रावकों को व्रत ग्रहण करने
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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