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________________ देदाशा पर्युषणा - तृतीय दिन भादवा वदि अमावस साधर्मिक वात्सल्य के प्रभाव से ही आज भी हजारों मानव संयम-पथ में विचरण कर रहे हैं, उनको किसी प्रकार की चिन्ता है क्या? आप एक दिन की यात्रा के लिए निकलते हो तो नाश्ता और भोजन के लिए कितनी तैयारी करते हो । जबकि पूर्ण जिन्दगी के लिए निकले हुए हमें क्या कल की चिन्ता होती है ? नहीं होती है क्यों? संघ ने साधर्मिक के नाते हमारी समस्त जवाबदारी अंगीकार कर ली है। हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए कैसे-कैसे बलिदान दिए हैं, त्याग किए हैं। निमाड़ नामक देश में नांदुरी नाम की नगरी है। देद नाम का एक वणिक वहाँ रहता था किन्तु वह अत्यन्त गरीब था । ऋण का ब्याज चुकाने की शक्ति न होने के कारण ऋण देने वालों के भय से वह जंगल की ओर भाग गया। उस जंगल में नागार्जुन नामक योगी रहता था । उस योगी के पास देद पहुँच गया। मूक भाव से योगी की सेवा करने लगा। कर्जदारों के भय से नगर में न जाने के कारण तीन दिन वह भूखा ही रहा । उसकी ऐसी उत्तम भक्ति से योगी प्रसन्न हो गया । देद की तो एक ही बात थी, बहुत दे या मौत दे । स्वयं की आप बीती योगी के समक्ष रख दी। योगी ने कहा- पहले तू भोजन कर ले । विद्या के बल से आकाश से थाली आयी । भोजन करने के पश्चात् कृपा के योग्य समझकर योगी ने उसको सुवर्णसिद्धि दी और कहा - इसका उपयोग केवल लोक-कल्याण के लिए ही हो। कहीं लोभ में डूब मत जाना। क्योंकि वणिक जाति हमेशा लोभी होती है। योगी से सुवर्णसिद्धि प्राप्त कर देद अपने घर आया। सोना बनाने लगा । प्रतिदिन सवा सेर सोने का दान देने लगा। सारे गाँव में देद I
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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