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पर्युषणा - द्वितीय दिन
गुरुवाणी-२
जीवन्त बन गई। लोगों ने हर्षोल्लास में आकर इतना सोना उछाला कि मानो सोने का पर्वत हो गया हो । बहुत ही धाम- धूम महोत्सव के साथ प्रतिष्ठा हुई। जब दादा की पलांठी के नीचे नाम लिखने का समय आया उस समय श्री विद्यामण्डनसूरि ने अपना नाम लिखवाने के लिए स्पष्ट ना कह दिया। दादा की पलांठी में नाम लिखा जाता हो तो कौन छोड़ेगा ? किन्तु वे तो नि:स्पृही, त्यागी - तपस्वी महात्मा थे इसीलिए पलांठी पर लिखा गया - सूरिभिः प्रतिष्ठितं आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई। ऐसे त्यागी महात्माओं के तप-जप और प्राण इस मूर्ति में सिंचित हुए हैं। आज भी दादा का जय-जयकार हो रहा है। पूजा की ढाल में आता है पंदरसो सत्याशीओ रे, सोलमो ओ उद्धार, कर्माशाओ करावीओ रे, वर्ते छे जय जयकार हो जिनजी भक्ति हृदय मां धारजो रे.....
जिस आचार्य ने यह प्रतिष्ठा की थी उनके आज्ञानुवर्ती विवेकधीरविजयजी महाराज ने ज्येष्ठ वदि ७ के दिन शत्रुंजय नो उद्धार इस नाम का ग्रन्थ लिखा। उसी ग्रन्थ में यह सब उल्लेख है । उस ग्रन्थ की टिप्पणी में ही लिखा गया है कि भगवान् ने सात बार श्वासोच्छ्वास लिए। प्रतिष्ठा कराने वाले कर्माशा के वंशज आज भी चित्तौड़ - उदयपुर में निवास करते हैं । वस्तुपाल ने साधर्मिक बन्धुओं के लिए जो परिश्रम किया था उसी में से निर्मित ये दादा आज भी लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। इस कलियुग में भी ये दादा प्रत्यक्ष हैं। कुछ वर्षों पूर्व हुआ चमत्कार देखिए ।
स्वदृष्टि से देखा गया अद्भुत अभिषेक और चमत्कार ..
विक्रम संवत् २०४३ आषाढ़ सुदि एकम का दिन था । मेरा ( साहेबजी) और प्रद्युम्नविजयजी महाराज का चातुर्मास पालिताणा में निश्चित हुआ था। सभी साथ में थे। तीन वर्ष से भयंकर अकाल पड़ रहा था। इस वर्ष भी ऐसी ही स्थिति थी । भयंकर हवाएं चल रही थीं मानो राक्षसगण अट्टाहास कर रहे हों ! मानो अनेकों मौत की गोद में सोने वाले हों! भयंकर गर्मी! गिरिराज पर चढ़ते हुए मार्ग में जो कुण्ड आते हैं वे
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