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________________ गुरुवाणी - २ पर्युषणा - द्वितीय दिन ५९ फरमान लिख देता हूँ । बादशाह ने फरमान लिखवाया और कर्माशा को दिया । फरमान मिलने के साथ ही कर्माशा का मनमयूर नाच उठा । फरमान लेकर खम्भात आए। खम्भात संघ ने भव्य सामैया किया । सम्पूर्ण संघ जो काम नहीं कर सका वह अशक्य कार्य मेवाड़ के एक बनिये ने किया । उपाश्रय में गुरु महाराज विराजमान थे । उन्होंने आदेश दिया भक्तों ! अब विलम्ब किए बिना ही कार्य प्रारम्भ करो। मैं शीघ्र ही विहार कर पालिताणा पहुँचता हूँ और आप लोग भी आवें । कर्माशा भी संघ और परिवार के साथ पालिताणा आए । गाँव-गाँव में कर्माशा का सम्मान कर उन्हें वधाया गया। अब प्रश्न यह खड़ा हुआ कि मूर्ति किस पत्थर की बनवाई जाए? किसी ने कहा- वस्तुपाल द्वारा लाए गये पाषाण पड़े हुए हैं, उसी की बनायी जाए, किन्तु वे पत्थर कहाँ पड़े हुए हैं किसी को कोई खबर नहीं थी। पूछताछ करते-करते समरा नामक पुजारी ने कहा अमुक स्थान के भूमिगृह में हैं । पाषाण बाहर निकाले गये, चारों तरफ आनन्द ही आनन्द छा गया। आदिपुर में छावनी बनायी गई। समस्त साधु संघ वहाँ पहुँचकर कोई तप में और कोई जप में लीन हो गये। चारों ओर तपस्या की झड़ी लग गई। कोई दो महीने के, कोई चार महीने के और कोई छ: महीने के उपवास, आयम्बिल आदि तप - जप करने लगे । मूर्ति तैयार होने लगी। अनेक शुभ भावनाओं और चारों तरफ के शुभ परमाणुओं के साथ मूर्ति पूर्ण रूप से तैयार हो गई । विद्वानों को बुलाया गया । प्रतिष्ठा का मुहूर्त विक्रम संवत् १५८७ ज्येष्ठ वदि ६ रविवार श्रवण नक्षत्र निश्चित हुआ । प्रत्येक प्रदेशों में आमंत्रण पत्रिका भेजी गई। सौ वर्ष के बाद प्रतिष्ठा हो तो किसको आनन्द नहीं होगा? लाखों की मानवमेदनी उमड़ कर वहाँ आयी। हर्षित होकर सब लोग नाचने लगे। ज्येष्ठ वदि ६ के दिन शुभ मुहूर्त में सभी लोग एकत्रित हुए । प्रतिष्ठा का विधि-विधान चल रहा है। चारों ओर दिव्य ध्वनि और दिव्य वातावरण प्रसरित हो रहा है । जिस समय प्रतिष्ठा की जाती है उस समय मूर्त्ति ने सात श्वासोच्छ्वास लिए थे। मूर्त्ति 1
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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