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________________ गुरुवाणी-२ पर्युषणा - द्वितीय दिन साधर्मिक वात्सल्य का प्रारम्भ भरत चक्रवर्ती से हुआ। भरत चक्रवर्ती को ऐसा लगा कि मेरे समस्त भाई संसार पार कर गये हैं और मै अकेला रह गया हूँ। इसीलिए उसने सर्वदा धर्म की जाग्रति रहे एतदर्थ उसने एक वर्ग खड़ा किया। उसने उस वर्ग के मानवों से कहा - तुम्हें प्रतिदिन राज सभा में आकर मुझे प्रतिदिन यह कहना है - मा हण, मा हण, जितो भवान् वर्धते भीः, अर्थात् किसी को मारें नहीं, मारे नहीं। कषाय द्वारा तुम पराजित हो गये हो, पराजित हो गये हो। भय बढ़ रहा है। इस प्रकार तुम्हें प्रतिदिन सुनाना होगा। मेरे भोजनालय में ही तुम्हें भोजन करना होगा। मेरे यहीं तुम्हें निवास करना है। राज्य की ओर से तुम्हें समस्त प्रकार की सुविधाएं प्राप्त होंगी। इस वर्ग के मनुष्यों की पहचान के लिए भरत महाराज ने काकिणी रत्न से उनके शरीर पर तीन रेखाएं अंकित करवाई। ये रेखाएं ज्ञान, दर्शन और चारित्र की प्रतीक रूप थीं। कालक्रम से काकिणी रत्न चला गया, उसके बाद सोने के तीन तार रखने लगे। धीमे-धीमे यह भी विलीन हो गया और यह वर्ग ब्राह्मण के रूप में पहचाना जाने लगा। जो आज जनोई । यज्ञोपवीत पहनते हैं उसका प्रारम्भ भरत चक्रवर्ती से ही हुआ था। इस प्रकार साधर्मिक वात्सल्य का प्रारम्भ हुआ। मोटा वस्त्र .... पूज्य हेमचन्द्रसूरिजी महाराज ने कुमारंपाल के द्वारा साधर्मिक वात्सल्य करवाया था। एक समय सूरिजी शाकम्भरी (सांभर) नगरी में पधारे। वहाँ कोई सामान्य / गरीब श्रावक रहता था। उसने अपने हाथों से एक मोटे कपड़े की धोती / अधोवस्त्र तैयार किया था। सूरिजी पधारे हैं इसीलिए उसने विचार किया - ऐसा उत्तम पात्र मुझे कहा मिलेगा? क्यों न इस महात्मा की भक्ति करूँ? इसीलिए उसने वह अधोवस्त्र आचार्य महाराज को समर्पण कर दिया। सूरिजी ने उस समय उस वस्त्र को अपने वस्त्रों के साथ बांधकर रख दिया। आचार्य महाराज विहार करते हुए
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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