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पर्युषणा - द्वितीय दिन
भादवा वदि १३
साधर्मिक वात्सल्य .
पूज्य ज्ञानी भगवन्तों ने पर्युषण पर्व को सर्वोत्तम पर्व बतलाया है । इस पर्व की आराधना के लिए गुरु भगवन्तों ने पाँच उपाय बतलाए हैं। अमारि प्रवर्तन आदि । दूसरा उपाय है साधर्मिक वात्सल्य | साधर्मिक वात्सल्य अर्थात् स्वधर्मी बन्धुओं के प्रति स्नेहभाव । एक ओर समस्त धर्म और दूसरी ओर साधर्मिक वात्सल्य । दोनों को बुद्धि रूपी तराजू में तोला जाए तो दोनों का वजन समान होता है। हमें जो कुछ भी धर्म प्राप्त हुआ है, वह साधर्मिक का ही प्रताप है । हम इस समय जिस किसी प्रकार की भी आराधना कर रहे हैं, वह किसके आभार से? ये मन्दिर, उपाश्रय और संस्थाओं आदि का निर्माण किसने करवाया है और किसलिए करवाया है? साधर्मिकों की साधना के लिए ही न? जो ये साधर्मिक नहीं होते तो आज न तुम होते और न हम होते । पांजरापोल आदि जो संस्थाएं चल रही हैं वे भी साधर्मिकों के बल पर । आज तुम्हारे यहाँ किसी भी संघ के अधिकारी टीप / चन्दे के लिए आते हैं और उसमें लाखों रुपये लिखवाते हैं वे किस कारण से? साधर्मिक सम्बन्ध पर ही लिखवाते हैं न? तुम जो साधर्मिकों के बीच में रहते हो तो पर्व दिवसों में धर्म करने के लिए प्रेरित होते हो। एक दूसरे को खेंच कर लाते हैं। हमने साधर्मिक शब्द का अर्थ बहुत छोटा कर दिया है। 'सब लोग मिलकर एक साथ भोजन करें यही साधर्मिक वात्सल्य हो गया है।' इसका अर्थ तो बहुत विशाल है । साधर्मिक-साधर्मिक के साथ कभी छल-प्रपंच नहीं करता है, फंसाता नहीं है, शीशे में नहीं उतारता है । साधर्मिक दुःखी होता है तो उसकी समस्त प्रकार से सहायता करनी चाहिए, क्योंकि साधर्मिक है तो धर्म है।