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________________ ४४ पर्युषणा - द्वितीय दिन गुरुवाणी-२ पाटण पधारते हैं। महाराजा कुमारपाल स्वागत की तैयारी करते हैं । समय देखकर आचार्य महाराज ने वह मोटा वस्त्र निकाला और धारण कर लिया। उसी समय महाराजा कुमारपाल आ गए। आचार्यश्री के शरीर पर मोटे कपड़े का वस्त्र देखकर राजा ने कहा - आपने ऐसा मोटा वस्त्र क्यों धारण किया है? मेरे जैसा अट्ठारह देश का स्वामी और उसके गुरु ऐसे कपड़े पहनें? मेरा तो लज्जा से ही सिर झुक जाता है। आप कृपा करके अन्य वस्त्र धारण करें। आचार्य महाराज उत्तर देते हैं - हम तो साधु हैं, हमे तो जो मिलता है उसी में संतोष करते हैं। राजन्! इस कपड़े से नहीं बल्कि लज्जा तुम्हें अपने आप से आनी चाहिए, क्योंकि तुम एक विशाल राज्य के अधिपति हो और तुम्हारे राज्य में साधर्मिक की ऐसी करुणाजनक स्थिति? यह सुनते ही कुमारपाल ने उसी समय आदेश दिया - कोई भी साधर्मिक दुःखी हो और यहाँ आए तो उसे मुझे बिना पूछे ही एक हजार स्वर्ण मोहर दे दी जाए। इस प्रकार महाराजा कुमारपाल ने चौदहसौ करोड़ सोने की मोहरें साधर्मिक भक्ति में खर्च की। साधर्मिक को भी यह अभिमान होना चाहिए कि मुझे सम्भालने वाला सारा संघ है। धर्म के प्रति उसके हृदय में बहुमान जगना चाहिए। हमारे साधर्मिक वात्सल्य अभी धर्मस्थानों तक ही हैं, उसे जीवस्थानक तक पहुँचाना है। मुझे साधर्मिकों को मेरे समान बनाना है। सहायक रूप बनाना है। सहायता लेने वाले को भी यह समझना चाहिए कि संघ के व्यक्ति मेरी निःस्वार्थ भाव से मदद कर रहे हैं। उनकी ओर मेरा व्यवहार भी नम्रता से परिपूर्ण होना चाहिए। आज भाई-भाई के बीच में और पिता-पुत्र के बीच में मेल-मिलाप नहीं है। एक दूसरे को फंसाने के लिए परिश्रम कर रहे हैं। यह सब देखकर और सुनकर ऐसा लगता है कि धर्म करने वालों का यह कैसा धर्म है? उदो मारवाड़ी.... कलिकाल सर्वज्ञ के समर्पित भक्त उदयन मन्त्री साधर्मिक भक्ति में से ही आए हैं। पहले यह उदा मारवाड़ी था। एक पैसा भी उसकी अंटी
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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