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पर्युषणा-प्रथम दिन
गुरुवाणी-२ शिष्यों को हित-शिक्षा दी, सबको खमाया और ध्यान में बैठ गये। विक्रम संवत् १६५२ भादवा सुदि ११ के दिन संध्या समय में पद्मासन में बैठकर माला फेर रहे थे। चार माला पूर्ण हो गई, पाँचवी माला फेर रहे थे कि वह माला तत्काल ही उनके हाथ से गिर गई। जनता में हाहाकार मच गया। जगत् का हीरा चला गया। भारतवर्ष में गुरु-विरह का भयंकर बवंडर छा गया। सूरिजी के निर्वाण से सर्वत्र हाहाकार मच गया। ऊना के संघ ने अन्य संघो को यह दुःखदायक समाचार पहुँचाने के लिए शीघ्रवाही अश्वों/पोठियों को रवाना किया। उस समय चिठ्ठी एवं तार के साधन नहीं थे। ज्यों-ज्यों और जहाँ-जहाँ समाचार मिलते गये वहाँ के संघ देववंदन करने लगे। गाँव-गाँव में शोकसभाएं होने लगी। सब जगह शोक के बादल छा गये। इस तरफ सूरिजी की अन्तिम क्रिया के लिए ऊना और दीव संघ तैयारी करने लगा। तेरह खंडवाली माण्डवी तैयार की गई और उसमे सूरिजी के पार्थिवदेव को विराजमान किया गया। गांव के बाहर आम्बाबाड़ी में चन्दन की चिता तैयार की गई। सूरिजी के नश्वर देह को उस पर रखा गया। आग प्रज्वलित करने की किसी में हिम्मत नहीं थी। अन्त में हृदय को कठोर बनाकर हाहाकार वेदना के स्वरों के साथ व्यथित मन से इस चिता में १५ मण चन्दन, ३ मण अगर, ३ सेर कपूर और ३ सेर केसर आदि डाले गये। सूरिजी का नश्वर देह विलीन हो गया। उस समय वहाँ रहे हुए आम के वृक्ष अकाल में ही केरियों के झुंड से झुक गये। जो आम वृक्ष बांझ थे उन पर भी केरियाँ आ गई। सूरिजी के अग्नि संस्कार का वह स्थान अकबर बादशाह ने जैन संघ को भेंट कर दिया। आज भी वह आम्बावाड़ी शाहबाग के नाम से प्रसिद्ध है।
इधर गुरु से मिलने की अत्युत्कण्ठा होने के कारण विजयसेनसूरिजी महाराज लाहौर से उग्र से उग्र विहार करते रहे। विहार में सूरिजी के स्वास्थ्य के समाचार नहीं मिले। पाटण आए। उपाश्रय में पग धरते ही समस्त श्रावकों को देववंदन करने के लिए एकत्रित देखकर