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गुरुवाणी-२
पर्युषणा-प्रथम दिन एक रत्न आया है और उस रत्न को मैंने गुरुमहाराज को भेंट कर दिया है। उसी समय में पूज्य देवेद्रसूरिजी महाराज भी धन्धुका में विराजमान थे। उस पाहिनी ने गुरु महाराज से स्वप्न का अर्थ पूछा। आचार्य महाराज पूर्ण ज्ञानी थे। उन्होंने पाहिनी देवी को कहा - तुम्हारे उदर में एक महान् रत्न अवतरित होगा। वह रत्न तुम मुझे दे देना। समय गुजरता गया। विक्रम संवत् १९४५ कार्तिक पूर्णिमा के दिन पूर्ण चन्द्र के समान तेजस्वी पुत्ररत्न को पाहिनी ने जन्म दिया। पुत्र का नाम चांग रखा गया। द्वितीया के चन्द्र के समान वह बढ़ने लगा। इस तरफ आचार्य देव भी विहार करते हुए धन्धुका पधारे। आचार्य महाराज मन्दिर में दर्शन हेतु गए थे। वहाँ दर्शन करने के लिए पाहिनी अपने पुत्र चांग के साथ आती है। आचार्य महाराज के खाली आसन पर चांग बैठ जाता है। आचार्य महाराज देखते हैं 'पुत्र के लक्षण पालने में'। देखने के साथ ही यकायक पहला स्वप्न याद आता है। पुत्र का विशाल ललाट और तेजस्वी मुखमुद्रा देखकर आचार्य पाहिनी के पास से पुत्र की याचना करते हैं । पुत्रमोह के कारण पाहिनी पहले तो ना कह देती है। आचार्य उसे खूब समझाते हैं फिर संघ को साथ में लेकर उसके घर जाते हैं तथा पाहिनी को समझाते हैं । पाहिनी विचार करती है - पच्चीसवें तीर्थंकर स्वरूप यह श्रीसंघ मेरे घर आंगन में आया है, अतः उनकी बात / अनुरोध को स्वीकार करना ही चाहिए। ऐसा मन में दृढ़ निश्चय कर और हृदय को कठोर करके अपने पुत्र चांग को गुरु महाराज को समर्पित कर देती है। उस पुत्र को लेकर आचार्य महाराज खंभात आते हैं और वहाँ के उदयन मन्त्री को इसका लालनपालन करने के लिए सोंप देते है। इस ओर जब पाहिनी ने पुत्र को समर्पित किया था उस समय उसका पिता चाचिक बाहर गया हुआ था। अन्य ग्राम से लौटने पर और अपना पुत्र नहीं देखने पर वह अपनी पत्नी पाहिनी से पूछता है - मेरा लाल कहाँ गया? पाहिनी कहती है - उसको गुरु महाराज ले गए। वह शासन का अनमोल रत्न बनेगा। यह सुनने के साथ ही