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गुरुवाणी-२
पर्युषणा-प्रथम दिन साथ निवास करना ही पर्युषण कल्प कहलाता था। चातुर्मास निकट में आने पर साधुगण पाट-पाटला और निवास योग्य स्थान की खोज करते थे। क्योंकि उस युग में आज के जैसे चकाचौंध करने वाले टाईल्स वाले उपाश्रय नहीं थे। निवास स्थान लेपन युक्त होते थे जिससे जीवाकुल भूमि होने के कारण बारम्बार निरीक्षण करना पड़ता था। जिस गांव में पाटपाटला आदि सुविधा मिल जाती थी वहीं चातुर्मास निश्चित करते थे। आज के समान विनंती करने के लिए संघ नहीं आते थे। पूर्व के साधुओं का जीवन देखते हैं तो आश्चर्यचकित हो जाते हैं। कैसे संयोगों में और कैसी कठिन जीवनचर्या द्वारा इन महात्माओं ने धर्म को चलाया, सुरक्षित रखा और आज हम तक पहुँचाया। पर्युषणा कल्प....
पर्युषणा कल्प आषाढ़ सुदि पूनम से प्रारम्भ होता है। श्रावण वदि १ से वदि ५ तक साधुगण गाँवों में उपयोगी वस्तुओं की खोज करते हैं। यदि पाट-पाटला आदि मिलने की संभावना न हो तो वहाँ से विहार कर जाते हैं। दूसरे गाँव में जाते हैं और वहाँ श्रावण वदि ६ से १० तक शोध करते हैं । यदि वहाँ भी सुविधा नहीं मिली तो साधुगण आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार पाँच-पाँच दिन तक की खोज भादवा सुदि ५ तक करते हैं फिर भी यदि साधुओं के लिए उचित सुविधाजनक स्थान प्राप्त नहीं होता है तो अन्त में झाड़ के नीचे ही चातुर्मास की स्थापना कर देते हैं। विहार / विचरण बंद कर देते हैं। एक तरफ तो अन्तिम पाँच दिन साधुगण गाँव मे शोध करते हैं और दूसरी तरफ कल्पसूत्र का वांचन करते हैं। कल्प अर्थात् आचार। साधुओं के बीच में मुख्य साधु आचारों का वर्णन करता है और समस्त साधु उस वर्णन का ध्यानपूर्वक श्रवण करते हैं। जिससे की उनके ध्यान में आ जाता है कि चौमासे में हमें किस प्रकार का व्यवहार करना है। पाँच दिन तक कल्पसूत्र वांचन की जो परम्परा / रूढ़ी थी वह तो आज भी कायम है। सामान्यतया हमारे यहाँ आठ दिन के ही कार्यक्रम