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अशठता
गुरुवाणी - २ हम व्यवहार में बोलते हैं - भाई ! जितना चाहे खर्चा हो जाए किन्तु मेरी वाहवाही हो इसका ध्यान रखना । साधर्मिक भक्ति का नाम निशान भी नहीं होता है। मनुष्य कभी बोलियों में लाखों रुपयों की बोली बोलता है। इस बोली के पीछे लक्ष्मी का सदुपयोग हो यह भावना नहीं रहती है बल्कि उसके स्थान पर यह कामना रहती है कि मेरा नाम हो । उस नाम के बल पर लड़के-लड़कियों के वैवाहिक घर भी अच्छे मिल जाएं। जो लगभग इस प्रकार की गणना करके धर्म में व्यय करते हैं उन मनुष्यों का जीवन धर्ममय कैसे हो सकता है?
माता-पिता की प्रतिष्ठा बिना प्रभु की प्रतिष्ठा कैसी ....?
एक समृद्धिशाली सेठ थे। उन्होंने घर में ही मनोरम एवं दर्शनीय गृहमन्दिर बनवाया । पधराने के लिए भगवान् को लाए, प्रतिष्ठा के लिए किसी प्रसिद्ध आचार्य की खोज करने लगे। वैसे तो हम किसी दिन भी उपाश्रय की सीढ़ियों पर भी नहीं चढ़ते हैं किन्तु जहाँ स्वयं का प्रसंग आता है तो स्वयं की कीर्ति और शोभा के लिए श्रेष्ठ से श्रेष्ठ आचार्य की खोज करते हैं । इस सेठ को भी खोजते खोजते प्रसिद्ध आचार्य महाराज मिल गए। समाज में वाहवाही हो इसीलिए आचार्य महाराज का प्रवेशोत्सव भव्यातिभव्य रूप में बैण्ड-बाजों के साथ करवाया । आचार्य महाराज लम्बा विहार करके आए थे इसीलिए वे दोपहर के समय में आराम कर रहे थे। उसी समय एक बुढ़िया माजी लकड़ी का टेका लेकर धीरे-धीरे उपाश्रय में प्रवेश करती है। उसके मैले-कुचेले कपड़े थे । आचार्य महाराज को झपकी आ गई थी। ज्यों ही लकड़ी की टक-टक आवाज सुनी त्यों ही आचार्य महाराज जग गये। आचार्य महाराज बुढ़िया माँ को देखकर पूछते हैं - क्यों माजी मजे मे तो हो? कैसे आई हो ? बुढ़िया उत्तर देती है
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बापजी ! आप यहाँ कैसे आए हो? आचार्य महाराज कहते हैं - हम तो प्रतिष्ठा कराने के लिए आए हैं। बुढ़िया कहती है- यह प्रतिष्ठा नहीं होगी। क्यों? जिस घर में देवों के समान माँ-बाप अपमानित हो वहाँ भगवान्
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