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अशठता
भादवा वदि ११
भगवान् मल्लिनाथ....
__धर्म का अधिकारी मनुष्य किस प्रकार का होना चाहिए इसके लिए पूज्य शान्तिसूरीश्वरजी महाराज कहते हैं - मनुष्य अशठ / दुष्टतारहित होना चाहिए, उसका जीवन दम्भरहित होना चाहिए अर्थात् माया कपट से रहित होना चाहिए। मायावी मनुष्य यदि धर्म करता है तो वह निष्फल जाता है अथवा मनुष्य को सामान्य योनि में ले जाने वाला बनता है। भगवान् मल्लिनाथ ने पूर्वजन्म में माया से आराधना की थी इसीलिए स्त्रीवेद कर्म का बन्धन किया था। पूर्वजन्म में छः मित्र थे। छहों मित्रों ने एक साथ दीक्षा ग्रहण की थी। भगवान् मल्लिनाथ के जीव ने विचार किया कि मैं सबसे आगे निकल जाऊं। सोचा - अभी तक जो तप,जप,ध्यान करते हैं वे छहों समान रूप से करते हैं, इनसे आगे मैं कैसे निकल सकता हूँ? उनसे आगे निकलने के लिए उन्होंने गुप्त रूप से मायावी बनकर तपस्या प्रारम्भ की। तपस्या के पारणे के दिन सब लोग वापरने / खाने के लिए बैठ जाएं उस समय भगवान् मल्लिनाथ का जीव कहता - आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है इसीलिए मैं उपवास करता हूँ। इस प्रकार माया कपट से किए हुए तप का परिणाम यह आया कि वे प्रथम गुणस्थान पर पहुँच गये। अर्थात् मिथ्यात्व और स्त्रीवेद का बन्धन किया। आराधना बहुत उन्नत थी किन्तु कपट पूर्ण थी। आराधना से उन्होंने तीर्थंकर नाम का बन्धन अवश्य किया किन्तु साथ ही स्त्रीवेद का बन्धन भी। दम्भ का बोलबाला ....
आज समाज में अधिकांशतः दम्भ का आचरण बहुत बढ़ गया है। मनुष्य अच्छे कार्य के लिए नहीं किन्तु दिखावट के लिए सब कुछ करता है। अरे! साधर्मिक वात्सल्य करेगा तो भी लोक दिखावे के लिए।