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गुरुवाणी-२
प्रभु के साथ चित्त जोड़ो प्राप्त होता है वह उसी रंग की बन जाती है और कुछ समय के लिए मनुष्य उसी के रंग में रंग जाता है। तन आसन पर, मन कहाँ ....?
एक स्त्री थी। जो बहुत ही समझदार और चतुर थी। उसके ससुर का सूत का बहुत बड़ा व्यापार था। सूत बुनने के लिये वह हरिजनों को दे देता था। व्यापार बहुत फैला हुआ होने के कारण उसके मन में सदा सूत और हरिजन ही बसे रहते थे। एक समय जब वह सेठ सामायिक में बैठा था तब उससे मिलने के लिए कोई आता है और पूछता है - क्या सेठ घर में हैं ? बहू जवाब देती है - सेठ तो हरिजनों के यहाँ गए हैं । पूछने वाला व्यक्ति विदा हो जाता है किन्तु सामायिक में बैठे हुए उसके ससुर विचार करते हैं - बहू ने ऐसा उत्तर क्यों दिया? बहू तो बहुत ही चतुर और समझदार है । हो न हो इसके उत्तर में कोई न कोई रहस्य अवश्य होगा। सामायिक पूर्ण होते ही ससुर अपनी बहू से पूछते हैं - हे पुत्री! तूने ऐसा उत्तर क्यों दिया? बहू कहती है - पिताजी ! आप सामायिक में आसन पर बैठे अवश्य थे किन्तु आपकी आकृति से मैं आपके भावों को पहचान गई थी कि आपका मन तो किसने कितना सूत काता है? किसको कितना सूत देना है? इन विचारों में ही आपका मन घूम रहा था। इसीलिए मैंने उन्हें कहा - ससुर जी हरिजनों के यहाँ गए हुए हैं। आप ही बताइये मै यह नहीं कहती तो क्या कहती? सामायिक करते हुए तो मन समभाव में रहना चाहिए। प्रभु के ध्यान में लीन होना चाहिए। जबकि आज हमारी सामायिक का सम्बन्ध केवल कटासन और घड़ी मात्र रह गया है। सामायिक लेते हैं उसी समय से घड़ी की ओर नजर रहती है। यदि हम प्रतिदिन १० सामायिक भी करें तो क्या हमें शान्ति मिल सकती है? समस्त आराधनाएं सार्थक कब बनती हैं? दिमाग जब समस्त विचारों से शून्य होकर उसी में तन्मय