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________________ १० पापभीरुता गुरुवाणी-२ उसकी गर्मी से हम पीड़ित हो जाते है। ऐसी प्रज्वलित भट्टी तीन दिन तक उसको तपाती है। फिर उस निर्मित पात्रों पर चित्रकारी का कार्य होता है। ऐसे पापपूर्ण कत्लखाने में तैयार किए हुए वे कप-प्लेट आपके शो-केस की शोभा बढ़ाते है और वे अनेक जीवों के पाप-बंधन के कारण बनते हैं, क्योंकि कोई भी वस्तु यह बहुत बढ़िया है ऐसा कहकर जब हम प्रशंसा करते हैं तो उस चीज की बनावट में हुए पाप के हिस्सेदार हम भी बन जाते हैं। षट्काय के जीवों का कचूमर निकल जाता है अर्थात् नष्ट हो जाते है। तुम्हारे घर की प्रायः समस्त वस्तुएं ऐसे षट्काय के जीव हिंसा से ही निर्मित होती है। अनेक त्रसकाय के जीव भी इसमें आकर गिरते रहते हैं और मौत को प्राप्त करते हैं। ऐसे कत्लखानों के मालिक होकर धर्मस्थानों में लाखों रुपये खर्च करते हैं । व्याख्यान आदि में अग्रिम पंक्ति में बैठते हैं, उनको धर्म स्पर्श कर गया हो कैसे कह सकते हैं? व्यापार कब धर्म बनता है ....? श्रावक कुल-परम्परा से चल रहा व्यापार करता है, किन्तु वह किस प्रकार और कैसे करे? शास्त्रकार कहते हैं - विश्व में जो व्यापार निन्दनीय न हो वही करें और स्वयं की पूंजी के अनुसार न्याय पूर्वक करें। शास्त्रकारों ने व्यापार को भी धर्म के अन्तर्गत लिया है, क्योंकि गृहस्थ का कार्य व्यापार के बिना चल ही नहीं सकता। अत: वह न्याययुक्त ही होना चाहिए। न्याय से प्राप्त धन मनुष्य को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है और सन्मति प्रदान करता है, जबकि अन्याय से प्राप्त धन जीवन की शान्ति हरण कर लेता है। अन्याय के धन से बनाए गये आज के मन्दिरों में प्रभाव और अतिशय दृष्टिगोचर ही नहीं होता है, क्योंकि नींव ही पवित्र नहीं है। अतः उस अनीति पूर्वक अर्जित धन से निर्मित तीर्थ किस प्रकार पवित्र बन सकते हैं? हम प्रतिदिन मूलचन्द रचित आरती बोलते हैं। मूलचन्द मूलतः वड़नगर का निवासी था। जाति से भोजक था। प्रत्येक पूर्णिमा को पैदल चलकर केशरियाजी जाता था। अत्यन्त गरीब था। ऐसे
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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