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________________ अक्रूरता गुरुवाणी-२ रूप में रानी फिर रही थी वहाँ आकर खड़ी हो जाती हैं। कुतिया इन सबको ध्यान पूर्वक देखती है। उसके स्मरण में आता है कि मैंने इन सबको कहीं देखा है, विचारों में गोते लगाती हुई वह गहराई में उतर जाती है। विचारों की गहराई के कारण वह मूर्छा को प्राप्त होती है और अन्त में उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होता है तथा वह अपना पूर्वजन्म का अनुभव करती है। पूर्वजन्म को देखते ही उसे गहरा आघात लगता है। इतनी उत्कृष्ट आराधना करने पर भी एक छोटे से अवगुण ने मुझे कहाँ ला पटका है? इस मानसिक चोट के कारण वह अन्न-पानी का त्याग कर देती है, मरण को प्राप्त कर सद्गति को प्राप्त करती है। एक मान कषाय यदि मनुष्य को दुर्गति में फेंक देता है तो चारों कषायों से युक्त जिसका जीवन हो उसकी क्या दशा होती होगी? चारों कषाय चारों गतियों में विभक्त हो जाते हैं। अधिकांशतः विशेष क्रोध करके नरक में जाता है। विशेष रूप से मान - कषाय करने वाला व्यक्ति मनुष्य गति में जाता है। अधिकांशतः माया पशु योनि में घसीट कर ले जाती है और मुख्यतः लोभ देव गति में रहा हुआ है। मान यह मीठा जहर है। मनुष्य समझ भी नहीं पाए उससे पहले ही वह उसे समाप्त कर देता है। धर्म करने वाला सुश्रावक कषायों से मुक्त होता है। कर्म खपाने के लिये कोई सरल और उत्तम साधन है तो तप। . शरीर को निरोगी रखने के लिए भी तप से उत्तम कोई औषध नहीं है। तप शरीर और मन दोनों को निर्मल एवं पवित्र करता है।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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