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गुरुवाणी - २
अक्रूरता
प्रशंसा सुनकर वह मन में बहुत हर्षित होती थी। समय अपना कार्य किया करता है, किसी की प्रतीक्षा नहीं करता । वह कुन्तल देवी काल आने पर मृत्यु को प्राप्त हुई ।
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एक समय कोई ज्ञानी महात्मा राजमहल में पधारते हैं। देशना के अन्त में रानियाँ गुरु भगवन्त से पूछती हैं- हे गुरुदेव ! हमारी बड़ी बहिन काल-धर्म प्राप्त करके कहाँ उत्पन्न हुई होगी? ज्ञानी गुरुदेव कहते हैं तुम्हारी बड़ी बहिन मरण धर्म को प्राप्त कर इसी राजमहल में कुतिया के रूप में उत्पन्न हुई है। यह सुनकर सारी रानियाँ स्तब्ध रह जाती हैं और ज्ञानी गुरुदेव से पूछती हैं- हे गुरुदेव ! वह तो खूब भक्ति करती थी । भक्तिमति होने पर भी उसकी यह दुर्गति क्यों? गुरु महाराज कहते हैं - बहनों! धर्म करना अलग वस्तु है और धर्म की आराधना करना पृथक् वस्तु है । आज चारों ओर धर्म खूब बढ़ रहा है, पर्वदिवसों में तपस्याएं भी खूब हो रही हैं किन्तु जहाँ पर्युषण पर्व पूर्ण हुए अथवा तपस्या पूर्ण हुई, चौमासा पूर्ण हुआ और आराधनाएं पूर्ण हुई कि हमारा उपाश्रय पूर्णरूप से खाली हो जाता है। कहावत है - कर्या संवत्सरीना पारणां अने मूक्यां उपाश्रयना बारणां । आज ऐसी ही परिस्थिति नजर आती है । भले ही मासक्षमण किया हो किन्तु पारणे के बाद रात्रिभोजन और कन्द - मूल आदि का खाना प्रारम्भ हो जाता है। धर्म कहीं भी निशानी के रूप में भी देखने को नहीं मिलता है। महीना भर भूखा रहने के कारण पारणे के बाद तो खाने पर टूट पड़ते हैं। सारे दिन खाने की चक्की चालू रहती है। यदि धर्म सच्चे अर्थ में जीवन में परिणमित हो जाए तो एक नवकारसी का प्रत्याख्यान भी अनन्त कर्मों को भस्म करने वाला होता है । कषाय-रहित धर्म का परिणाम .
रानी ने धर्म किया, किन्तु उसके साथ में अहंकार का भी उतना ही पोषण किया। इसी कारण उसकी ऐसी दुर्गति हुई । ज्ञानी गुरु के मुख से यह सुनकर रानियों को अत्यन्त दुःख हुआ, और वे जहाँ कुतिया के