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अक्रूरता
भादवा वदि ८
धर्म गुण प्रधान है ....
धर्म के मुख्यतः दो विभाग हैं - १. गुणकाण्ड और २. क्रिया काण्ड। गुणकाण्ड में विनय, विवेक, सदाचार, क्षमा, सज्जनता आदि को ग्रहण किया जाता है, और क्रियाकाण्ड में शेष क्रियाओं को ग्रहण किया जाता है। गुणकाण्ड धर्म को पुष्ट करता है किन्तु आज हम लोग केवल क्रियाकाण्ड को ही पकड़कर बैठे हैं, गुणों का तो हम विवेकरहित होकर पूर्णतया नाश कर देते हैं । गुणहीन धर्म प्राणरहित शव के समान है। धर्म का आचरण करने वाला अक्रूर होना चाहिए अर्थात् क्रोध, अभिमान, माया आदि दोषों से रहित होना चाहिए। धर्म करते हुए भी यदि हृदय में अहंकार भरा हुआ है तो धर्म उसका स्पर्श नहीं कर सकता और जहाँ अहंकार होगा वहाँ कठोरता, तुच्छता आदि अवश्य होंगे ही। कुन्तल रानी.
एक राजा था। उसकी अनेक रानियाँ थी। उनमें कुन्तल देवी नामक पटरानी थी। राजमहल में एक जिनमन्दिर था वहाँ कुन्तल देवी नियमित रूप से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ द्रव्यों द्वारा प्रभु की पूजा-भक्ति किया करती थी। राजा भी पूजा हेतु समग्र सामग्री की पूर्ति किया करता था। वह कुन्तल रानी प्रतिदिन हीरा, माणिक, मोतियों से प्रभुमूर्ति की अंगरचना किया करती थी। अन्य रानियाँ उसकी भक्ति की खूब अनुमोदना करती थीं किन्तु कुन्तल देवी इस प्रभु भक्ति के बहाने अपने गर्व का पोषण करती थी और गर्व से फूलकर कुप्पा हो गई थी। घमण्ड आने के कारण उसके जीवन में कठोरता भी आ गई थी और वह अन्य रानियों को तुच्छ दृष्टि से देखती थी, तिरस्कार करती थी। फिर भी उन रानियों का कुन्तल देवी के प्रति पूज्यभाव था। स्वयं की भक्ति की