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गणधरवाद
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गुरुवाणी-२ हुई होती है। चुनाव में लाखों रुपये खर्च करता है किसलिए? पूजनीय बनने के लिए ही न! दान में कोई एक पैसा भी खर्च नहीं करता है । खर्च करेगा तो अपने नाम का पाटिया लगाने के लिए। एक मनुष्य मार्ग से जा रहा था । बाजु में शिल्पकार पत्थर गढ़ रहे थे। उसने शिल्पियों के पास जाकर पूछा- भाई ! इन सब पत्थरों को किसलिए गढ़ रहे हो । जो मन्दिर के लिए गढ़ रहे हो तो पास में ही सुन्दर और विशाल मन्दिर तो है ही । शिल्पी उस भाई का हाथ पकड़कर आगे ले गया। वहाँ जो भाई यह मन्दिर बना रहा है, उस भाई का नाम शिला पर उत्कीर्ण किया जा रहा था । उस शिला को बता कर शिल्पी बोला - ये पत्थर मन्दिरों के लिए नहीं गढ़ रहें है किन्तु नामों के लिए गढ़ रहे हैं। नाम का कैसा मोह ! उपाश्रय में भी पाट पर बड़े-बड़े मोटे अक्षरों में नाम लिखाएंगे। दान कैसा और नाम कैसा ? मनुष्य को सिद्धि नहीं प्रसिद्धि चाहिए, दर्शन नहीं प्रदर्शन चाहिए। ऋषि मैत्रेयी से पूछते हैं -
इन तीनों एषणाओं का केन्द्र स्थान कौन है? आत्मा । यह धन किसके लिए? स्वयं के लिए। दूसरे को यदि प्राप्त होता है तो अच्छा लगता है क्या? नहीं! अरे, दूसरे को प्राप्त होता है तो मन में जलन होती है । पुत्र किसलिए? स्वयं के नाम के लिए ही न ! जनसमूह किसलिए? मेरा महत्व बढ़े, मेरा काम हो । लोगों को किसलिए इकट्ठा करते हैं ? लोगों के लिए नहीं स्वयं के लिए। यह तीनों एषणाएं स्वयं के लिए ही है, किन्तु यह स्वयं कौन है? इसका स्वयं को पता नहीं है । सबके केन्द्र स्थान में आत्मा है, इसीलिए हे मैत्रेयी, आत्मा कैसी है? इसको पहले तू समझ। आत्मा का ध्यान कर, चिन्तन कर, मनन कर तभी तुझे आत्मा का स्वरूप प्राप्त होगा । इसी सम्बन्ध में ऊपर का वेदवाक्य लिखा गया है / कहा गया है । आत्मा ज्ञान का समूह है। उठकर सोयें इतने समय में भिन्नभिन्न प्रकार के ज्ञान की हारमाला चलती रहती है । यह विभिन्न प्रकार का ज्ञान पाँच भूतों में से उत्पन्न होता है । पाँच भूतों के आधार पर ही
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