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________________ गणधरवाद गुरुवाणी-२ (१) वित्तैषणा - धन की कामना धन की कामना कभी भी पूरी नहीं होती । जिसको सौ मिल जाते हैं वह हजार की इच्छा करता है, हजार मिलने पर लाख की इच्छा करता है, लाख मिलने पर करोड़ की इच्छा करता है और करोड़ मिलने पर राजा बनने की कामना करता है। राजा बनने पर चक्रवर्ती बनने की इच्छा करता है और चक्रवर्ती बनने पर इन्द्र होने की अभिलाषा करता है। इस प्रकार इस इच्छा का कहीं भी अन्त नहीं आता है। सुन्दरदास कवि ने लिखा है - जो दस वीस पचास भये तब होई हजार तुं लाख मगेगी, क्रोड अरब खरब्ब असंख्य धरापति होने की चाह जगेगी। स्वर्ग पाताल का राज्य करूं तृष्णा अधिकी, अति आग लगेगी, सुंदर एक संतोष बिना शठ! तेरी तो भूख कभी न भगेगी। __ घर में जितने चाहे गोकुल हों किन्तु एक ही गाय के दूध का उपभोगी बन सकता है न? अर्थात् एक ही गाय का दूध पी सकता है। चाहे जितनी अढलक सम्पत्ति क्यों न हो किन्तु उसकी खुराक कितनी? चार या आठ रोटी ही। चाहे जितनी जमीन-जायदाद हो किन्तु कितनी जमीन का उपयोग करेगा? केवल साढ़े तीन हाथ! और तो सब कुछ दूसरों का है फिर भी मनुष्य की सम्पत्ति की एषणा पूरी नहीं होती। (२) पुत्रैषणा - पुत्र की लालसा ___यह पुत्र की लालसा भी मनुष्य के जीवन में ढूंस-ठूस कर भरी हुई है। चाहे जितनी सम्पत्ति हो किन्तु पुत्र न हो तो? पुत्र-प्राप्ति के लिए मनुष्य न जाने कितने देवताओं की मन्नतें करता है। अन्त में दत्तक (गोद) लेता है। अरे, ईश्वर को भी सृजन करना अच्छा लगता है तो मनुष्य को पुत्र की अभिलाषा हो इसमें आश्चर्य कैसा? (३) लोकैषणा - लोगों में पूजाने की कामना ___ बहुत लोग मेरे अनुयायी बनें, बहुत से लोगों का मैं प्रिय बनूँ, लोगों में मेरी प्रसिद्धि कैसे बने। बस, रात-दिन यही लालसा मन में पड़ी
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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