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________________ गुरुवाणी-२ गणधरवाद इन्द्रभूति गौतम के हृदय में क्या शंका थी और किस वाक्य के कारण उत्पन्न हुई थी? वेद में एक वाक्य आता है - विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाऽनुविनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्ति। इस वाक्य का अर्थ इन्द्रभूति इस प्रकार करते थे - आत्मा पाँच भूतों में से उत्पन्न होती है और उन्हीं पाँच भूतों में विलीन हो जाती है, इस कारण से परलोक की संज्ञा नहीं है। पाँच भूत अर्थात् पृथ्वी-(हड्डियाँ), पानी-(रक्त), अग्नि(जठराग्नि), वायु-(श्वासोश्वास), आकाश-(शरीर का पोला भाग) । इन पाँच भूतों में से ही उत्पन्न होता है और उसी में समा जाता है तो आत्मा कहाँ से आती है कहाँ जाती है? आदि अनेक बातें विचारणीय है और इस संदेह में इन्द्रभूति गौतम उलझ जाते है। वेद-वाक्य की भूमिका.... दूसरी तरफ बृहदारण्यक नामक उपनिषद् में यह वर्णन आता है कि याज्ञवल्क्य नामक ऋषि थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम मैत्रेयी था और दूसरी का नाम था कात्यायनी । मैत्रेयी को तत्त्व-चर्चा में रस आता था जबकि कात्यायनी को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और मौज-शोख आदि में रस आता था। कुछ समय बीतने पर ऋषि जंगल में जाने का विचार करते हैं। जंगल में जाने से पहले स्वयं की सम्पत्ति का बँटवारा दोनों में करना चाहते हैं जिससे कि भविष्य में उनके बीच में किसी प्रकार का मतभेद न हो। उस समय मैत्रेयी ऋषि से कहती है - स्वामिन् ! आप जो मुझे सम्पत्ति दे रहे हैं क्या उससे मुझे अमरत्व मिल जाएगा? ऋषि कहते हैं - नहीं। किसी भी काल में धन से अमरपद नहीं मिलता है। मैत्रेयी कहती है - स्वामिन् ! तब फिर मैं इस सम्पत्ति का क्या करूँ। मुझे तो अमरपद चाहिए, यदि सारी पृथ्वी को सोने से मढकर मुझे दें तो भी मुझे नहीं चाहिए। मैत्रेयी को विशेष रूप से समझाते हुए ऋषि कहते हैं - जगत् में तीन प्रकार की एषणा चल रही है - १. वित्तैषणा २. पुत्रैषणा और ३. लोकैषणा।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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