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________________ गुरुवाणी-१ धर्म - गुणात्मक है रहा। किन्तु पुत्र को आने में अधिक समय लग जाने के कारण पिता ने भोजन कर लिया। पुत्र घर आया। पिता ने पूछा- वत्स, आज इतना समय क्यों लगा। पुत्र आनन्द में झूमता हुआ बोला- पिताजी! जो पुराना माल पड़ा हुआ था! जिसको कोई नहीं लेता था, एक भद्रिक स्वभाव वाला ग्राहक आ गया उसको मैंने सारा माल बेच दिया। आज तो खुब मुनाफा हुआ है। यह सुनकर पिता को क्या जवाब देना चाहिए? आज के युग का पिता हो तो वह यही कहेगा- बेटा! तूने बहुत अच्छा किया। अब तू दुकान चलाने लायक हो गया। यह धर्म नही धर्माभास है। किसी को ठगने पर मिला हुआ धन क्या स्थिर रह सकेगा? उस पिता ने क्या जवाब दिया? जानना है? उसने कहा- पुत्र! तू दुकान संभालने लायक नहीं है। तूने किसी के साथ विश्वासघात किया है। वह भोला वणिक ठगा नहीं गया बल्कि तू खुद ठगा गया है। अनीति से प्राप्त धन कभी नहीं टिकता है। जिसका हृदय धर्मवासित हो वही उत्तर देगा। बालक कोई भी गलत काम करे तब पिता का यह कर्त्तव्य है कि उसे उपालम्भ देना ही चाहिए और उसे अच्छे मार्ग पर लाना ही चाहिए। धर्म को समझो.... एक व्यक्ति जो मुम्बई में निवास करता था। उसने किसी को ब्याज पर रुपये दिये होंगे। उसने ब्याज के रुप में चूस-चूस कर लेनदार को कंगाल बना दिया। फिर भी लेना बाकी रहा। वह देते-देते थक गया। उसने जाकर एक महाराज साहब से बात की। वह ब्याज पर देने वाला भाई प्रतिदिन सेवा-पूजा करता था और व्याख्यान सुनने के लिए आता था। महाराज साहब ने उस भाई से कहा - भाई, तूने जो रुपये ब्याज से दिए थे उसके पास से तूने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है। उस व्यक्ति का जीवन जहरमय बन गया है। अब तो उस ब्याज से उसको मुक्त कर । तब उस सेठ ने कहा- महाराज! इस व्यवहार में पड़ने की आपको जरूरत
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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