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________________ गुरुवाणी-१ जोड़ और तोड़ नहीं होने पर अमृत जैसा भोजन भी स्वादरहित बन जाता है। हमें धर्म की जिज्ञासा रूप भूख जगानी चाहिए। आज धर्मगुरुओं के वाणी रूपी अमृत भोजन हमारे सामने रखा हुआ है, परन्तु हमें धर्म को समझने की भूख नहीं है इसलिए धर्म सुनते हुए भी वह हमें रुचिकर नहीं लगता है। संस्कृत में 'धृ' नाम की धातु आती है 'धृ' अर्थात् धारण करना। धर्म शब्द 'धृ' के ऊपर से बना है। दुर्गति में पड़ते हुए जीवों को जो बीच में ही धारण कर लेता है वह धर्म है। वास्तव में मनुष्य के हृदय में इस प्रकार का विचार आता है कि धर्म को मैं बहुत समय से सुनता आ रहा हूँ, किन्तु उसका प्रभाव मेरे ऊपर नहीं होता। मैं कैसा मंदभागी हूँ, अन्यथा मेरा कल्याण हो जाता। इसके विपरीत हम विचार करते है कि हमने धर्म खूब सुना है, अब सुनने को कुछ शेष नहीं रहा। नमस्कार में बाधक.... चीन में एक तत्त्वज्ञानी थे। तत्त्वज्ञान का चिंतन करने के लिए अनेक मनुष्य उनके पास आते थे। अहंकार में डूबा हुआ एक व्यक्ति ढीठ बनकर तत्त्वज्ञान सुनने के लिए उनके पास आया। उस चीनी ने कहामुझे तुम्हारा तत्त्वज्ञान सुनना/समझना है, मुझे सुनाओ। उत्तर में उस चीनी तत्त्वज्ञ ने यह कहा- भाई, पहले चाय पीकर आओ फिर हम बैठेंगे। फलतः चाय की केटली आई, चीनी भाई ने केटली में से चाय कप में डालनी चालु की, कप भर गया, तश्तरी भी भर गई, तब भी उसने चाय की धार बंद नहीं की। उस अहंकारी चीनी भाई ने कहा- यह क्या कर रहे हो? कप और तश्तरी तो भर गई है, चाय बाहर गिरती जा रही है। तत्कालीन चीनी तत्त्वज्ञ ने कहा- मैं तुम्हें तत्त्वज्ञान सीखा रहा हूँ। क्योंकि तुम्हारे दिमाग में ठूस-ठूस कर अहंकार भरा हुआ है। मैं तुम्हें कुछ भी कहूँगा वह चाय के समान व्यर्थ ही होगा। अतः पहले तुम अहंकार को दूर करो और उसके बाद तत्त्वज्ञान को प्राप्त करो।
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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