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प्रवासी
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गुरुवाणी-१ सिकन्दर वहाँ आता है और कहता है- मेरे साथ चलिए । मुनि साथ चलने को तैयार नहीं होते हैं। सिकन्दर को अहंकार के कारण क्रोध आता है
और कहता है- चलते हो या नहीं? मुनि आत्मबली थे। वे कहते हैंसिकन्दर, तुम भले ही अपनी तलवार चलाओ! आत्मा ऐसी अमर है कि इसका किसी भी शस्त्र से वध नहीं हो सकता, इसे कोई जला नहीं सकता। न तो यह जल से भीगती है और न ही पवन से सूखती है। मुनि के उक्त वचन सुनते ही सिकन्दर का घमण्ड चूर-चूर हो जाता है, हाथ से तलवार गिर पड़ती है और वह मुनि से माफी माँगता है। अन्त में अनुनय-विनय के साथ उस मुनि को सिकन्दर अपने साथ ले जाता है। एक समय सिकन्दर बीमार हो जाता है, बचने की कोई उम्मीद नहीं रहती है, उस समय वह अपने निकट के आदमियों के समक्ष अपनी अन्तिम इच्छा बतलाता है- जब तुम लोग मेरा जनाजा/शव यात्रा/ अर्थी निकालो उस समय मेरी अर्थी के आगे खुली तलवार वाली सेना को रखना, वैद्य, हकीम, खजानची आदि मेरे अर्थी के चारों ओर चलें। मेरे दोनों खुले हाथ कफन के बाहर रखना और उद्घोषणा करना- सम्पूर्ण पृथ्वी का अधिपति सिकन्दर जा रहा है, उसको सशस्त्र सेना, ये वैद्य, और यह हकीम कोई भी बचा नहीं सके हैं। यह इसलिए आवश्यक है कि जनता मेरी जीवन गाथा से यह ज्ञान प्राप्त कर ले कि मनुष्य कुछ साथ लेकर नहीं आया है और न ही कुछ साथ लेकर जाने वाला है, अपने साथ केवल पाप और पुण्य को ही ले जाता है। शास्त्रकार उदरपूर्ति हेतु भागदौड़ करने कि मनाही नहीं करते हैं, वे मनाही करते हैं तो पिटारा/खजाना भरने के लिए। सूई को साथ लाना ....
पंजाब की बात है। गुरु नानक घूमते हुए एक स्थान पर पहुंचे। वहाँ कोई धनवान मनुष्य रहता था। गुरु नानक प्रवचन दे रहे थे वह धनवान व्यक्ति भी प्रवचन सुन रहा था। प्रवचन पूर्ण होने पर वह धनी मनुष्य गुरु नानक से कहता है- साहेब! कोई कार्य हो तो कहिएगा।