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________________ धर्म-भावशुद्ध गुरुवाणी - १ २६ आदि, बस इतने में ही हमारा धर्म आ जाता है। शास्त्रकार धर्म की व्याख्या पृथक्-पृथक् रूप से करते हैं । धर्म अर्थात् सर्वप्रथम वाणी, व्यवहार और विचार में शुद्धि होनी चाहिए । अन्याय, अनीति, छल, प्रपंच से इकट्ठे किए हुए रुपये खर्च करने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह कोई बहुत बड़ा दानवीर धर्मात्मा है। श्रावक के प्रथम गुण में न्याय - सम्पन्न वैभव कहा गया है। जीवन की पवित्रता धर्म का प्रथम चरण है ... इस प्रकार का धर्म ही आराधना रूपी धर्म कहलाता है । वर्तमान में तो हम इन क्रिया-कांडो में इतने तन्मय हो गये हैं और इसी को धर्म का सच्चा स्वरूप समझ बैठे हैं। मन, वचन और काया को जो शुद्ध करती है वह क्रिया कहलाती है । धर्म सब कुछ प्रदान करता है । वास्तविक रूप में सच्चे धर्म को करेंगे तो वह धर्म हमारे जीवन की आवश्यक वस्तुओं को पूर्ण कर देगा। पग-पग पर धर्म के साथ धन की भी जरूरत पड़ती है। परलोक तो दूर है... पहले तो इस लोक में आवश्यकताएं खड़ी होंगी उसका क्या करोगे? इसके उत्तर में कहते हैंधर्म इस लोक का सुधार करता है, परलोक का सुधार करता है और अन्त में मोक्ष प्रदान करता है। आज हमें जितना द्रव्य पर विश्वास है, जैसे सौ रुपये का नोट लेकर जाएगें तो उसके बदले में सौ रुपये ही मिलने वाले हैं। ऐसा विश्वास सर्वपापों का नाश करने वाले, सर्व मंगलों में प्रथम मंगल इस नवकार मंत्र पर है क्या? नहीं है । विश्वास नहीं है इसीलिए हमारा मन भी नवकारवाली में नहीं लगता है । कदाचित् सौ रुपये के नोट को सरकार निरस्त करती है तो वह कागज का टुकड़ा मूल्य रहित बन जाता है, किन्तु नवकार मन्त्र के लाभ को कोई निरस्त करने वाला है? किसी भी काल में नहीं है। यह धर्म और काम को देता है तथा आरोग्य को भी देता है। अभिलाषा किस बात की है- आरोग्य की अथवा दवा की ? आरोग्य की ही होगी तो दवा का स्मरण कौन करेगा? वैसे ही तन्मयता धर्म की है
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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