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________________ धर्म- जीवनशुद्धि आषाढ़ दि १४ रे ! इस संसार में सुख प्राप्त करना ! समग्र जगत के प्राणी निरन्तर सुख की अभिलाषा को ह्रदय में रखते आए हैं। सभी की सर्वदा एक ही अभिलाषा रहती है कि हम कैसे सुखी हों, हमारा जीवन किस प्रकार से आनन्दमय बने? इस इच्छा की पूर्ति के लिए मानव को पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है। मानव को सुख पूर्वक चलना हो तो अनभिलषित दुःखदायी मार्ग छोड़ ही देना चाहिए । भगवान का सर्वदा एक ही ध्येय रहता है कि समस्त जगत को कैसे सुखी करूँ ? नन्दीसूत्र में कहा गया है जयड़ जगजीवजोणि अर्थात् भगवान् समस्त जीवों की योनियों के जानकार हैं । इस जगत में प्राणी भिन्न-भिन्न योनियों में क्यो भटकता है और क्यों दुखी होता है ? इसका मुख्य कारण यही है कि मनुष्य सुख के लिए आँखे बंद करके चाहे जैसे पापों को करने के लिए तैयार रहता है। इसी के फलस्वरूप उसको जहाँ-तहाँ भटकना पड़ता है। कोई व्यक्ति जब गाँव में से शहर में जाता है उस समय नगर निवासी उस ग्रामवासी को कहते हैं- भाई ! आगे-पीछे देखकर चलना । भगवान् भी हमको इसी प्रकार कहते हैं- आगे-पीछे देखकर चलना । आगे अर्थात् भविष्य में तुझे किस गति में जाना है, पीछे अर्थात् जगत में व्याप्त विषमता का कारण क्या है? इन सभी सुखदुःख का मूल कारण जानने को मिलता है तभी हमारे हाथ में सच्चा धर्म आता है। धर्म अर्थात् जीवन की शुद्धि, जीवन का निर्माण । वर्ष नाम क्यों पड़ा ? इस लोक के निर्माण के लिए भी धर्म बहुत ही आवश्यक है। जीवन में शान्ति और शक्ति के लिए धर्म कितना उपयोगी है इस पर
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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