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प्रस्तुत हुए। मैंने पूज्य गुरुदेव को प्रूफ बतलाए । तत्काल ही उन्होंने नहीं कह दिया। हैं तो ये महापुरुष ही, उनके हृदय में करुणा का स्रोत बहता ही रहता है। अन्त में उन्होंने मेरी विनंती को स्वीकार कर 'हाँ' कहा। इस प्रकार पूज्य गुरुदेव के आशीर्वाद से यह काम प्रारम्भ किया।
इस छोटी सी पुस्तिका में विराट सागर छुपा हुआ है। इसमें धर्म करने वाला व्यक्ति कैसा होना चाहिए? उसके गुणों का वर्णन मार्मिक शैली में किया गया है। जैसे अगाध और अक्षय समुद्र में गिरा हुआ बिन्दु अक्षय बन जाता है तथा अमृत के एक बिन्दु से मृत्यु शय्या पर पड़ा हुआ व्यक्ति भी बैठ जाता है उसी प्रकार धर्म का एक बिन्दु भी जीवन में ओतप्रोत हो जाए तो वह जीवनरूपी नौका को पार कर देता है।
इस पुस्तक के प्रारम्भ में धर्म की व्याख्या करते हुए श्रावक के गुण वर्णित किए गये हैं। वैसे तो श्रावक के २१ गुण होते हैं किन्तु प्रारम्भ के ४ गुण - अक्षुद्र, रूपवान, प्रकृतिसौम्य और लोकप्रिय का वर्णन इसमें किया गया है, अन्य गुणों का विवेचन आगे किया जाएगा।
मेरे लिए सम्पादन का यह प्रथम ही अवसर है। सम्पादन का काम कठिन होने पर भी मुझे मेरी स्वर्गीया तारक-गुरुवर्या, पूजनीया, शतवर्षाधिकायु, संघमाता, बा महाराज के प्रिय नाम से जगत्प्रसिद्ध, वात्सल्यमयी गुरुमाता पूज्या साध्वीश्री मनोहरश्रीजी महाराज साहब (पूज्य जम्बूविजयजी महाराज साहब की सांसारिक मातुश्री) तथा पूजनीया सेवाभावी गुरुवर्या श्री सूर्यप्रभाश्रीजी महाराज साहब के आशीर्वाद का साथ मिला है।
संयम जीवन की आराधना करते हुए मेरे सांसारिक पूज्य पिताश्री धर्मघोष-विजयजी महाराज साहब तथा मातुश्री आत्मदर्शनाश्री जी महाराज साहब का स्नेहाशीष ही मेरा बल बना।
पूज्य गुरुदेव ने अन्तिम प्रूफ में रही हुई क्षतियों को दूर किया है अतः मैं उनकी ऋणी हूँ। पूज्यश्री के शिष्य परिवार ने प्रूफ पढ़ने में जो सहायता की है उसके लिए मैं उनका आभार स्वीकार करती हूँ।