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गुरुवाणी - १
जो मनुष्य अन्तरात्मा वाला होता है उसे तुरन्त ही विचार आएगा कि मेरे में सद्गुण कितने हैं, दुर्गुण कितने हैं? और इन दुर्गुणों को छोड़ने के लिए तथा सद्गुणों को प्राप्त करने के लिए वह निरन्तर भागदौड़ करता है ।
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अन्तरात्मा
परम की यात्रा
मेरा कहाँ देता हूँ ?....
एक मनुष्य दान देता था। वह सर्वदा मुख नीचा करके दान देता था । एक आदमी ने उससे पूछा भाई ! आप नीचा मुख रखकर दान क्यों देते हो? दान लेने वाले को शर्म आनी चाहिए न कि देने वाले को, उस पर उसने प्रश्नकर्ता को कहा - अरे भाई ! जो मैं दान देता हूँ वह मेरा नहीं है, भगवान् का दिया हुआ है, फिर भी लोग मेरा गुणगान किया करते हैं । भगवान् को कोई याद नहीं करता है इसीलिए मुझे लज्जा आती है। जो मैं दान देता हूँ वह तो भगवान् ने मुझे दिया है तभी तो मैं दे पा रहा हूँ?
बस, प्रभु ही है.
एक महान् सद्गुरु थे। सर्वदा स्वयं में मस्त रहते थे। किसी भी दिन मान-सम्मान का विचार नहीं करते थे । उनके तो मन मन्दिर में केवल भगवान् ही थे। उनके जीवन को अहंकार छू भी नहीं सका था। केवल परमात्मा की भक्ति यही उनका काम था । अन्त में भक्ति के प्रभाव से उनमें अनेक लब्धियाँ प्रकट हुईं। उनके बल पर वे नये-नये कार्य करने लगे। देवों में भी उनकी प्रसिद्धि फैली। उनके दर्शन के लिए देव आते, दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हो जाते। देवता ने उनको वरदान मांगने के लिए कहा - जो चाहिए सो मांग लो। क्योंकि, देवदर्शन कभी भी निष्फल नहीं जाता। वह सन्त कहता है - मुझे तो मेरे परमात्मा मिल गये, बस, मुझे अन्य कुछ नहीं चाहिए।